________________
२२८
जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
प्रज्ञापना का आधार
आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापना को समवाय का उपांग लिखा है। किन्तु प्रस्तुत उपांग का सम्बन्ध कब से इस अंग के साथ हुआ इसका स्पष्ट निर्णय विज्ञ नहीं कर सके हैं। स्वयं श्यामाचार्य प्रज्ञापना को दृष्टिवाद में से लिया ऐसा सूचित करते हैं। किन्तु हमारे सामने दृष्टिवाद उपलब्ध नहीं है। अत: स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता कि पूर्व आदि से कौन सी सामग्री ली गई तथापि ज्ञानप्रवाद, आत्मप्रवाद और कर्मप्रवाद के साथ इसके वस्तु-पदार्थ का मेल बैठता है। प्रज्ञापना और दिगम्बर ग्रन्थ षट्खंडागम दोनों का विषय प्रायः समान है। षखंडागम की धवला टीका में षटखंडागम का सम्बन्ध अग्रायणीपूर्व के साथ जोड़ा गया है। अत: प्रज्ञापना का भी सम्बन्ध अग्रायणीपूर्व के साथ जोड़ सकते हैं।
आचार्य मलयगिरि के अभिमतानुसार समवायांग में कहे हए अर्थ का ही वर्णन प्रज्ञापना में है जिससे वह समवायांग का उपांग है। किन्तु स्वयं शास्त्रकार ने इसका सम्बन्ध दृष्टिवाद से बताया है। अतः यही उचित लगता है कि इसका सम्बन्ध समवायांग की अपेक्षा दृष्टिवाद से अधिक है। किन्तु दृष्टिवाद में मुख्य रूप से दृष्टि-दर्शन का ही वर्णन था। समवायांग में भी मुख्य रूप से जीव, अजीव आदि तत्त्वों का निरूपण है और इसमें भी वही निरूपण है, अत: समवायोग का उपांग मानने में भी कोई बाधा नहीं है।
प्रज्ञापना में ३६ विषयों का निर्देश है, इसलिए इसके ३६ प्रकरण हैं। प्रकरण को पद इस प्रकार सामान्य नाम दिया है। प्रत्येक प्रकरण के अन्त में प्रतिपाद्य विषय के साथ पद शब्द का व्यवहार किया है। आचार्य मलयगिरि पद की व्याख्या करते हुए लिखते हैं 'पदं प्रकरणमर्थाधिकार: इति
१ इयं च समवायाख्यस्य चतुर्थाङ्गस्योपांगम् तदुक्तार्थप्रतिपादनात् ।
-प्रज्ञापना टीका पत्र अज्झयणमिणं चित्तं सुयरयणं दिट्टिवायणीसंदं ।
जह वणियं भगवया अहमवि तह वण्णइस्सामि ॥ गा०३ । ३ पण्णवणासुतं-प्रस्तावना मुनि पुण्यविजयजी, पृ०६. ४ षखंडागम, पु. १, प्रस्तावना, पृ०७२।