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४. प्रज्ञापनासूत्र
नामकरण
प्रज्ञापना जैन आगम साहित्य का चतुर्थ उपांग है। प्रस्तुत आगम के रचयिता श्यामाचार्य ने इसका नाम 'अध्ययन' दिया है। जो सामान्य नाम है, और विशेष नाम 'प्रज्ञापना' है। वे कहते हैं---क्योंकि भगवान महावीर ने सर्वभावों की प्रज्ञापना की है उसी प्रकार मैं भी करने वाला हैं (करता हूँ)। अत: इसका विशेष नाम प्रज्ञापना है। उत्तराध्ययन की भांति प्रस्तुत आगम का नाम भी 'प्रज्ञापनाध्ययन' यह पूर्ण नाम हो सकता है।
प्रस्तुत आगम में एक ही अध्ययन है जबकि उत्तराध्ययन में ३६ अध्ययन हैं । इस आगम के प्रत्येक पद के अन्त में 'पण्णवणाए भगवईए' यह पाठ मिलता है। इसलिए यह स्पष्ट है कि अंग साहित्य में जो स्थान भगवती (व्याख्याप्रज्ञप्ति) का है वही स्थान उपांग में प्रज्ञापना का है। प्रज्ञापना का अर्थ
प्रज्ञापना क्या है ? इस प्रश्न के उत्तर में बताया है कि 'जीव-अजीव के सम्बन्ध में जो निरूपण है वह प्रज्ञापना है।' प्रस्तुत आगम में जीव अजीव का निरूपण होने से इसे प्रज्ञापना के नाम से कहा गया है। भगवती', आवश्यक मलयगिरिवृत्ति, आवश्यकचूणि,५ महावीरचरियं' और त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में भगवान महावीर द्वारा छद्मस्थ अवस्था में दश महास्वप्न देखने का उल्लेख है। उसमें तीसरा स्वप्न उन्होंने
१ 'अज्झयणमिणं चित्तं'
-प्रज्ञापना गा०३ २ उवदंसिया भगवया पण्णवणा सब भावाणं ..."जह वणियं भगवया अहमवि तह वण्णइस्सामि
----प्रशापना गा०२-३ भगवती १६६।५८० ४ आवश्यक मलयगिरि पृ० २७० ५ आवश्यकचणि पु० २७५ ६ महावीरचरियं ५।१५५ ७ त्रिषष्टिशलाका १०३।१४६