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२१८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा नैरयिकों के श्वासोच्छ्वास के पुद्गल, आहार के पुद्गल, लेश्याएँ, ज्ञान, अज्ञान, योग, उपयोग, अवधिज्ञान का प्रमाण, समुद्घात, सात नरकों में क्षुधा-पिपासादि की वेदना, शीतोष्ण वेदना, मानवलोक की उष्णता से नारकीय उष्णता की तुलना, नैरयिकों का अनिष्ट पुद्गल परिणमन, तिर्यंच के सम्बन्ध में विस्तार से लेश्या, दृष्टि, अज्ञान, ज्ञान, योग, उपयोग, उत्पत्ति, स्थिति, मरण, समुद्घात, उद्वर्तन, कुलकोडि इन ११ द्वारों से वर्णन किया गया है ।
मनुष्य योनि के जीवों के वर्णन में मनुष्य के संमूच्छिम और गर्भज दो भेद किये हैं । संमूच्छिम मनुष्य की उत्पत्ति का स्थान, गर्भज मनुष्य ३ प्रकार के-कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तरद्वीपज । एकोरुकद्वीप (अन्तरद्वीप) का स्थान, आयाम, विष्कंभ और परिधि, पद्मवरवेदिका की ऊँचाई, विष्कंभ, भूमितल का वर्णन, अनेक प्रकार के वृक्ष, लताएँ, गुल्म और १० प्रकार के कल्पवृक्षों का वर्णन । वहाँ के मनुष्यों का सर्वांगीण वर्णन करते हुए उनकी ऊँचाई, पसलियाँ, आहारेच्छा का काल, मनुष्यों के भोज्य पदार्थ, वहाँ की पृथ्वी व फलों के आस्वाद का वर्णन किया है। और साथ ही गृह, ग्राम, नगर, असि, मसि, कृषि आदि कर्म, हिरण्य, सुवर्ण आदि धातु, राजा और सामाजिक व्यवस्था, दास्यकर्म, बैरभाव, मित्रादि, नटादि के नत्य, वाहन, धान्य, डांस, मच्छर, युद्ध, रोग, अतिवृष्टि, लोहे आदि धातु की खाने, क्रय-विक्रय आदि सभी का वहाँ पर अभाव बताया गया है। अकर्मभूमिज मनुष्य के ३० प्रकारों और कर्मभूमिज के १५ प्रकारों का वर्णन है।
चार प्रकार के देवों का वर्णन करते हुए भवनवासी देवों से लेकर अनुत्तर विमानवासी देवों तक के भेदों का निरूपण किया है। भवनवासी देवों के भवनों का स्थान, दक्षिण के असुरकुमारों के भवनों का वर्णन, असुरेन्द्र की ३ परिषद, उनमें देवों की, देवियों की संख्या, उनकी स्थिति, तीन परिषदों की भिन्नता का कारण, उत्तर के असुरकुमारों का वर्णन, इसी प्रकार असुरकुमारों की तीन परिषदों का भी वर्णन है और दक्षिण-उत्तर के नागकुमारेन्द्र और दक्षिण-उत्तर के भवनेन्द्र व उनकी तीन परिषद व सभी के देव-देवियों का वर्णन है। व्यन्तर देवों के भवन, इन्द्र और परिषदों का भी वर्णन है। ज्योतिष्क देवों के विमानों का संस्थान और सूर्य, चन्द्र,