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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य २११ मैं स्वर्ग में गई हूँ । अत: तू भी धर्म और पुण्य कर। किन्तु उसने भी मुझे सूचित नहीं किया है अतः जीव और शरीर भिन्न नहीं है। केशी-कल्पना कीजिए, स्नानादि और सुगन्धित द्रव्यों के साथ तुम दर्शन के लिए जा रहे हो; उस समय कोई व्यक्ति शौचगृह में बैठा हुआ तुम्हें आह्वान करे कि तुम भी कुछ समय के लिए यहाँ आकर बैठो तो क्या उस समय तुम उसकी बात सुनोगे? प्रदेशी-मैं उस शौचगृह में कभी नहीं जाऊँगा। केशी---स्वर्ग में उत्पन्न हुआ देव मानव-लोक में आना पसन्द नहीं करता। चूंकि मानव-लोक की गन्ध उसे प्रिय नहीं होती और स्वर्ग के रंगीन काम-भोगों को वह छोड़ नहीं पाता। प्रवेशी-एक तस्कर को पकड़कर कोतवाल मेरे पास लाया । मैंने उसे कुम्भी में डालकर ऊपर से ढक्कन लगा दिया। कहीं छिद्र न रहे अतः उसे लोहे और शीशे से बन्द कर दिया। विश्वस्त पहरेदार भी नियुक्त कर दिये । कुछ समय के पश्चात् मैंने कुम्भी को खुलवा कर देखा, वह मरा हुआ था। जिससे यह स्पष्ट है कि जीव और शरीर दोनों एक ही हैं। केशी-एक व्यक्ति कूटागारशाला में द्वार बंद कर, अन्दर बैठकर यदि जोर-जोर से भेरी बजाये तो क्या तुम बाहर बैठे हुए उसकी आवाज नहीं सुनते ? प्रदेशी-हाँ, सुनता हूँ। केशी-जैसे निच्छिद्र मकान में से आवाज बाहर आती है वैसे ही जीव पृथ्वीशिला और पर्वत को भी भेद कर बाहर जा सकता है। इससे स्पष्ट है कि जीव और शरीर एक नहीं है। प्रदेशी-मैंने एक तस्कर को लोहे की कुम्भी में डलवा दिया और कुम्भी को अच्छी तरह बंद करवा दिया। कुछ दिनों के पश्चात् जब उसे खोला गया तो मृतकलेवर में कीड़े बिल-बिला रहे थे। उस लोहे की कुम्भी में कहीं पर भी छिद्र नहीं था, फिर वे कीड़े वहाँ कैसे आ गये? ज्ञात होता है कि जीव और शरीर भिन्न नहीं है। केशी-तुमने लोहे को फूंकते हुए देखा है ? उस समय लोहा अग्निमय हो जाता है। लोहे में वह अग्नि कैसे प्रविष्ट हई ? उसमें कहीं भी कोई छिद्र नहीं होता। इसी प्रकार जीव अनिरुद्ध गति वाला होने से कुम्भी को
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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