SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 239
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१. जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा स्वर से उपदेश दे रहा है कि मैं उद्यान में स्वच्छन्द रूप से चंक्रमण भी नहीं कर सकता।' चित्त ने प्रदेशी की शंका का समाधान करते हुए कहाराजन् ! ये पावपित्य केशीकुमार श्रमण हैं, चार ज्ञान के धारक हैं और अन्नजीवी हैं। राजा प्रदेशी केशीश्रमण के पास जाता है। केशीश्रमण उसके मन के विचार व्यक्त करके उसे प्रभावित करते हैं। प्रदेशी प्रश्न करता है-क्या श्रमण निग्रन्थ जीव और शरीर को पृथक मानते हैं ? केशी-हाँ, हम जीव और शरीर को पृथक मानते हैं। प्रदेशी-मेरे दादा अधार्मिक थे, प्रजा का पालन ठीक रूप से नहीं करते थे, आपकी दृष्टि से वह मरकर नरक में गये होंगे। उनका मेरे ऊपर अत्यन्त स्नेह था। मुझे देखकर वे प्रसन्नता से फूले न समाते थे। ऐसी स्थिति में वे मुझे आकर क्यों नहीं कहते कि मैं नरक में पैदा हुआ हूँ । पापकृत्य करने के कारण वहाँ अपार कष्टों का अनुभव कर रहा हूँ। इसलिए तू पाप न कर । पर उन्होंने मुझे अभी तक कुछ भी नहीं कहा है अत: जीव और शरीर एक हैं। केशी-प्रदेशी ! तुम्हारी रानी के साथ कोई कामुक व्यक्ति विषयसेवन की इच्छा करे तो क्या तुम उसे दंड दोगे? प्रदेशी-हाँ, मैं उसे शूली पर चढ़ा दूंगा, उसके प्राण ले लूंगा। केशी-यदि वह व्यक्ति तुमसे कहे, जरा रुक जाओ, मैं अपने सम्बन्धियों को सूचित कर दूं कि कामवासना के वशीभूत होकर मुझे मृत्यु-दण्ड मिल रहा है। यदि तुम भी ऐसा करोगे तो तुम्हें भी इसी प्रकार का दंड मिलेगा। तो क्या तुम उस पुरुष को अपने सम्बन्धियों को सूचना देने के लिए मुक्त करोगे? __प्रदेशी-कभी नहीं, क्योंकि वह मेरा अपराधी है। केशी-इसी प्रकार तुम्हारे दादा का तुम्हारे ऊपर स्नेह होने पर भी और उनकी इच्छा होने पर भी वे नरक से यहाँ पर नहीं आ सकते। अतः जीव और शरीर भिन्न है। प्रदेशी-(दूसरा उदाहरण प्रस्तुत करता है) मेरी दादी बहुत ही धर्मात्मा थी। उसका भी मुझ पर बहुत ही अनुराग था। वह आपकी दृष्टि से स्वर्ग में ही गई होगी। उसे तो आकर कहना चाहिए कि पुण्य के कारण
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy