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________________ अंगबाह्य आगम साहित्य २०६ चित्त सारथी केशीकुमार के पावन प्रवचन को सुनकर अत्यन्त आल्हादित हुआ और कहने लगा-'मैं अनगारधर्म को ग्रहण करने में असमर्थ हूँ अत: मुझे श्रावकधर्म ग्रहण करायें।' वह श्रावकधर्म स्वीकार कर निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धाशील हुआ। चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस और पूर्णिमा के दिन पौषध करता हुआ निर्ग्रन्थ मुनियों को निर्दोष अशन-पान-आसनशय्या आदि से लाभान्वित करता हुआ आत्मचिन्तन में लीन रहने लगा। राजा जितशत्रु की ओर से उपहार लेकर चित्त सारथी सेयविया (श्वेतांबिका) की ओर प्रस्थान करने के पर्व केशीश्रमण से सेयविया (श्वेतांबिका) पधारने की प्रार्थना करने लगा, किन्तु केशीश्रमण ने उसकी प्रार्थना की ओर ध्यान नहीं दिया। जब उसने अपनी प्रार्थना की उपेक्षा का कारण जानना चाहा तब के शीश्रमण ने कहा, 'तुम्हारा राजा प्रदेशी अधार्मिक है अतः हम वहाँ कैसे आ सकते हैं ?' चित्त ने निवेदन किया 'आप वहाँ पधारें, आपको वहाँ पर किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होगा।' चित्त सारथी वहाँ से सेयविया पहुँचा और मृगवन के उद्यानपालक को सूचित किया कि केशीश्रमण यहाँ पधारें तो उन्हें सभी प्रकार की सुविधा देना । उसके बाद उसने राजा प्रदेशी को जितशत्रु के दिये हुए उपहार प्रदान किये। कुछ समय के पश्चात् केशीश्रमण सेयविया पधारे । चित्त सारथी उनके बन्दन हेतु पहुँचा। उसने केशीश्रमण से निवेदन किया-भंते ! राजा प्रदेशी बड़ा ही अनार्य और अधार्मिक है। उसे आप उपदेश दें जिससे उसका भी कल्याण हो और साथ ही अन्यों का भी। केशीश्रमण ने कहा--जब तक वह नहीं आता, अपनी शंकाओं का समाधान नहीं करता तब तक वह धर्मश्रवण नहीं कर सकता। दूसरे दिन चित्त सारथी ने प्रदेशी से निवेदन किया कि जो कम्बोज के चार घोड़े उपहार में प्राप्त हुए हैं उनकी हम परीक्षा करें। राजा घोड़ों के रथ पर आरूढ़ होकर इधर-उधर घूमता रहा। जब वह थक गया और उसे प्यास सताने लगी तब चित्त सारथी उसे मुगवन उद्यान में ले गया, जहाँ केशीश्रमण धर्मोपदेश दे रहे थे । केशीश्रमण को देखकर प्रदेशी मन में चिन्तन करने लगा, 'जड़ व्यक्ति ही जड़ की उपासना करते हैं। मूढ़ व्यक्ति ही मूढ़ों की उपासना करते हैं, अज्ञ व्यक्ति ही अज्ञानियों को सम्मान देते हैं। यह कौन जड़, मूढ़ व अज्ञानी है ? इसका चेहरा चमक रहा है। उस पर दिव्य तेज भी झलक रहा है । यह क्या खाता है ? क्या पीता है ? यह इतने उच्च
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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