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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
७२ कलाओं और १५ देशीय भाषाओं के नाम, अंत में विरक्त हो दीक्षाग्रहण कर, केवलज्ञान प्राप्त कर अंबड की आत्मा निर्वाण पद को प्राप्त करेगी।
आचार्य आदि के प्रत्यनीक श्रमण आदि की किल्विषक देवों में उत्पत्ति । किल्विषक देवों की स्थिति, परलोक में अनाराधक होना । जातिस्मरण से देशविरति तक संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की सहस्रार कल्प पर्यंत उत्पत्ति और स्थिति आजीवक श्रमणों की अच्युत कल्प पर्यंत उत्पत्ति और स्थिति । स्वयं की प्रशंसा करने वाले यावत् कौतुक करने वाले श्रमणों की अच्युत कल्प पर्यंत उत्पत्ति और वहाँ के देवों की स्थिति । प्रवचन निवों की ग्रैवेयक देव पर्यन्त उत्पत्ति और स्थिति । अल्पारंभी यावत् देशविरत श्रमणोपासक की अच्युत कल्प पर्यंत उत्पत्ति, स्थिति । अनारम्भी यावत् नग्नभाववाले निग्रंथों की मुक्ति । अवशेष शुभकर्मों के रहने से निग्रंथों की सर्वार्थसिद्ध में उत्पत्ति और स्थिति । सर्वकामविरत यावत् क्षीणलोभ निग्रंथों की मुक्ति ।
केवली समुद्घात के चौथे समय आत्मा का संपूर्ण लोक में व्याप्त होना और निर्जीर्ण पुद्गलों का भी पूर्ण लोक से स्पर्श । निर्जीर्ण पुद्गलों को अतिसूक्ष्म सिद्ध करने हेतु गन्धपुद्गलों का उदाहरण । केवली समुद्घात करने के कारण। क्या सभी केवली समुद्घात करते हैं ? जवाब में नहीं करते हैं । केवली समुद्घात में ८ समय लगते हैं । केवली समुद्घात के समय मन, वचन के योग का प्रयोग नहीं होता, काय योग का प्रयोग होता है। समुद्रघात के समय मुक्त नहीं होते। केवली समुद्घात के पश्चात् मन, वचन और काया का प्रयोग होता है । सयोगी अवस्था में मुक्ति नहीं होती ।
मुक्त आत्मा की विग्रहगति नहीं होती। मुक्त होते समय एक साकारोपयोग होता है। सिद्धों की सादि अपर्यवसित स्थिति को द्योतित करने के लिए दग्धबीज का उदाहरण दिया गया है। सिद्ध होने वाले जीव का संघयण, संस्थान, जघन्य उत्कृष्ट अवगाहना, सिद्धों का निवास स्थान, सर्वार्थसिद्ध विमान के उपरिभाग से ईषत् प्राग्भारा पृथ्वीतल का अन्तर, ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी का आयाम, विष्कंभ, परिधि, मध्यभाग की मोटाई, उसके १२ नाम, उसका वर्ण, संस्थान, पौद्गलिक रचना, स्पर्श और उसकी अनुपम सुन्दरता का वर्णन किया गया है। ईषत् प्राग्भारा के उपरितल से लोकान्त का अन्तर और कोश के छठे भाग में सिद्धों की अवस्थिति ।