SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १९७ किया जाता है अत: उसकी अनंतार्थता जाननी चाहिए। जैसे समस्त नदियों के बालुकणों की गणना की जाय या सभी समुद्रों के पानी को हथेली में एकत्रित कर उसके जलकणों की गणना की जाय तो उन बालुकणों और जलकणों की संख्या से भी अधिक अर्थ एक पूर्व का होता है । कालजन्य मंद मेधा के कारण इस विशाल ज्ञानराशि का धीरे-धीरे हास होता चला गया। आचार्य कालक ने अपने प्रशिष्य सागर को उपदेश देते हुए कहा था कि 'ज्ञान का गर्व न करो'। उन्होंने अपने हाथ में मुट्ठीभर धूलि लेकर एक स्थान पर रक्खी। तत्पश्चात् दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें स्थान पर रक्खी, फिर उन्होंने शिष्य को संबोधित करते हुए कहा-जैसे यह धूलि एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने पर क्रमशः कम होती चली गई वैसे ही तीर्थंकर भगवान की वाणी गणधरों को प्राप्त हई और गणधरों से अन्य आचार्यों को और फिर उनके शिष्य-प्रशिष्यों को। इसी प्रकार यह भी कम होती चली गई है। आज प्रस्तुत द्वादशांगी का ज्ञान कितना कम रह गया है यह कहना अत्यधिक कठिन है। निशीथचूणि के अनुसार दृष्टिवाद में द्रव्यानुयोग, चरणानुयोग, धर्मकथानुयोग और गणितानुयोग का कथन होने से छेदसूत्रों की भांति इसे भी उत्तम श्रुत कहा है। तीन वर्ष के प्रव्रजित साधु को निशीथ, पांच वर्ष के प्रवजित साधु को कल्प और व्यवहार का उपदेश देना बताया है किन्तु दृष्टिवाद के उपदेश के लिए बीस वर्ष की प्रवज्या आवश्यक मानी गई है। बहत्कल्पनियुक्ति में लिखा है कि तुच्छ स्वभाववाली, बहुत अभिमानी, चंचल इन्द्रियों वाली और मन्दबुद्धि वाली सभी स्त्रियों को दृष्टिवाद पढ़ने यतोऽनन्तार्य पूर्व भवति, तत्र च वीर्य मेव प्रतिपाद्यते, अनन्तार्थता चातोऽवगन्तव्या तद्यथासव्व नईणं जा होज्ज बालुया गणणमागया सन्ती। तत्तो बहुयतरागो, एगस्स अत्यो पुवस्स ॥१॥ सव्व समुदाणजलं, जइ पत्थमियं हविज्ज संकलियं । एत्तो बहुयतरागो अत्यो एगस्स पुवस्स ।।२।। तदेवं पूर्वार्थस्यानन्त्यावीर्यस्य च तदर्थत्वादनन्तता वीर्यस्येति । -सूत्रकृतांग (वीर्याधिकार), माचार्यश्री जवाहरलाल म० द्वारा संपादित, पृ०३३५ २ बृहत्कल्पमाष्य, पृ० ४०४
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy