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१९६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा बिन्दुसारपूर्व में लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकार की विद्याओं का सम्पूर्ण रूप से ज्ञान प्राप्त कराने वाली सर्वाक्षर सन्निपातादि विशिष्ट लब्धियों का वर्णन था । जैसे अक्षर पर बिन्दु वैसे ही ज्ञान का सर्वोत्तम सार होने से इसे लोकबिन्दुसार या त्रिलोकबिन्दुसार की संज्ञा से भी अभिहित किया जाता था। श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं की मान्यता के अनुसार इस पूर्व की पदसंख्या १२३ करोड़ थी।
चौदह पूर्वो की वस्तु अर्थात् ग्रंथ परिच्छेद की संख्या क्रमशः १०, १४, ८, १८, १२, २, १६, ३०, २०, १५, १२, १३, ३० और २५ थी। ग्रंथ परिच्छेद के अतिरिक्त आदि के चार पूवों में क्रमशः ४, १२, ८ और १० चूलिकाएँ थीं। शेष १० पूर्यों में चूलिकाएँ नहीं थीं। जैसे पर्वत का शिखर पर्वत के अन्य भाग से उन्नत होता है वैसे चूलिकाओं का भी स्थान था।
दृष्टिवाद का चतुर्थ विभाग अनुयोग था। उसके मूल प्रथमानुयोग और गंडिकानुयोग ये दो भेद थे। प्रथम मूल प्रथमानुयोग में अरिहंतों के पंचकल्याणक का सविस्तृत विवरण था। द्वितीय गंडिकानुयोग में कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव आदि महापुरुषों का चरित्र था। यह विभाग ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण था । दिगम्बर परम्परा के साहित्य में इस विभाग का नाम प्रथमानुयोग मिलता है।
दृष्टिवाद का पांचवां विभाग चूलिका था। समवायांग और नंदी में लिखा है कि चार पूर्वो की जो चूलिकाएं हैं उन्हीं चूलिकाओं का दृष्टिवाद के इस विभाग में समावेश किया गया है किन्तु दिगम्बर साहित्य में जलगता, थलगता, मायागता, रूपगता और आकाशगता ये पाँच चूलिकाएँ बताई हैं। हष्टिवाद का महत्त्व
दृष्टिवाद अत्यधिक विशाल था। आचार्य शीलाङ्क ने सूत्रकृतांगवृत्ति में लिखा है कि पूर्व अनंत अर्थ वाला होता है और उसमें वीर्य का प्रतिपादन
१ दस १ चोद्दस २ अट्ठ ३ अट्ठारसेव ४ बारस ५ दुवे ६ य वत्यूणि ।
सोलस ७ तीसा ८ वीसा . पण्णरस अणुप्पवादम्मि १०॥७९॥ बारस एक्कारसमे ११ बारसमे तेरसेव वत्थूणि १२ । तीसा पुण तेरसमे १३ चोद्दसमे पण्णवीसा उ १४ ॥८॥
नम्बीसूत्र-पुण्यविजय जी, पृ०४५ २ नन्दीसूत्र ८१, पृ. ४५ ३ नन्दीणि