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१९२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा ने भगवान महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि सुबाहु ने ऐसा कौनसा दानादि सत्कृत्य किया जिसके कारण यह ऋद्धि इसे प्राप्त हुई ? भगवान ने कहा-पूर्वभव में इसने सुदत्त अणगार को एक मास की तपस्या के पारणे में अत्यन्त उदार भावना से दान दिया जिसके कारण यह ऋद्धि इसे प्राप्त हुई है। इसके कुछ वर्षों के बाद सुबाहकुमार ने महावीर के पास दीक्षा ग्रहण की और समाधिपूर्वक आयु पूर्ण कर देव बने। पश्चात् मनुष्यभव धारण करके मुक्त बनेंगे।
इसी प्रकार दूसरे अध्ययन में भद्रनन्दी, तीसरे अध्ययन में सुजात कुमार, चौथे अध्ययन में सुवासवकुमार, पाँचवें अध्ययन में जिनदास, छठे अध्ययन में धनपति (वैश्रमणकुमार), सातवें में महाबल, आठवें में भद्रनन्दीकुमार, नवें में महाचंद्रकुमार और दसवें में वरदत्तकुमार का वर्णन है। ये सभी राजकुमार थे । इन सभी ने तपस्वी मुनि को पवित्र भावना से निर्दोष आहारदान दिया था । उस कारण से उन्हें अपार सुख, ऐश्वर्य, रूप आदि प्राप्त हुआ था और अन्त में वे उत्तमकूल में जन्म ग्रहण कर साधना के द्वारा मुक्ति प्राप्त करेंगे। इन दश अध्ययनों में से सुबाहकूमार आदि कुछ जीव तो १५ भव धारण करके मोक्ष जायेंगे और कुछ जीवों ने उसी भव में मोक्ष प्राप्त किया। उपसंहार
विपाकसूत्र में आये हुए सभी पात्र ऐतिहासिक ही हों यह बात नहीं, कुछ पौराणिक और प्रागैतिहासिक हैं। दुःखविपाक के सभी कथानकों में हिंसा, स्तेय और अब्रह्म के कटु परिणामों का दिग्दर्शन कराया गया है। किन्तु असत्य और महापरिग्रह के परिणामों की कोई कथा इसमें नहीं आई। इसी प्रकार सुखविपाक में दान के फल का दिग्दर्शन है किन्तु अन्य धर्मों के आराधन के फलों का निर्देश नहीं है। जबकि नन्दी और समवाय में यह उल्लेख है कि प्रस्तुत आगम में असत्य और परिग्रहवृत्ति के परिणामों की भी चर्चा है।