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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १९१ वह अनेक प्रकार के पशु-पक्षी और मत्स्य आदि का मांस तैयार करता था। वह राजा को खिलाता और स्वयं भी आनन्दविभोर होकर खाता था। जिसके परिणामस्वरूप वह मरकर छठी नरक में पैदा हुआ और वहाँ से निकलकर यह शौर्यदत्त हुआ है। एक दिन वह मछली भूनकर खा रहा था कि मछली का काँटा उसके गले में चुभ गया। अनेक प्रयत्न करने पर भी वह न निकला और उस वेदना से कष्ट पाकर उसने आयु पूर्ण की।
नवें अध्ययन में देवदत्ता की कथा है। वह दत्त नाम के एक गृहपति की कन्या थी। वेसमणदत्त राजा के पुत्र कुसनन्दी के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ। कुसनन्दी माता का परम भक्त था। वह तेल आदि से मालिस कर माता की सेवा-शुश्रूषा करता था किन्तु देवदत्ता को यह बात पसंद नहीं थी, अतः उसने रात्रि में सोती हुई अपनी सास को मार दिया। अतः राजा ने उसके वध की आज्ञा दी। इस प्रकार वह पूर्वकृत कर्मों के कारण अनेक जन्मों तक दारुण वेदना का अनुभव करेगी।
दसवें अध्ययन में अंजुश्री की कथा है। अंजुश्री धनदेव सार्थवाह की कन्या थी। विजय नामक राजा के साथ उसका पाणिग्रहण हुआ। गुप्तस्थान पर भयंकर शूल रोग पैदा होने से उसे अपार कष्ट हुआ । विविध उपचार करने पर भी शांति नहीं हुई। गौतम ने जब उसकी अस्थिपंजरसम काया देखी तो भगवान से जिज्ञासा प्रस्तुत की। भगवान ने उसके पूर्वभव का वर्णन करते हुए कहा कि यह पूर्वभव में वेश्या थी। उस पाप के फलस्वरूप इस जन्म में इसे यह कष्ट भोगना पड़ रहा है। इसके बाद भी अनेक जन्मों तक इसे दारुण दुःख का अनुभव करना पड़ेगा।
, दु:खविपाक के दशों अध्ययनों में पाप का कट परिणाम बताया गया है और यह संदेश दिया गया है कि पाप के परिणाम को समझकर उससे बचो। द्वितीय श्रुतस्कन्ध : सुखविपाक
द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सुख के विपाक का फल है। इसके प्रथम अध्ययन में सुबाहुकुमार का वर्णन है । हस्तिशीर्ष नगर का राजा अदीनशत्रु था। उसकी धारणी नामक रानी से सुबाहुकुमार का जन्म हुआ। भगवान महावीर के उपदेश को श्रवण कर सुबाहु ने श्रावक के द्वादश व्रत ग्रहण किए। सुबाहु के दिव्य भव्य रूप व ऋद्धि, समृद्धि को देखकर गणधर गौतम