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________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १८६ वेश्या राजा को भी प्रिय है अत: राजा ने आवेश में आकर अपने अनुचरों से इसे पकड़वाया और इसकी खूब मरम्मत की। अन्त में इसे शूली पर चढ़ाया जायगा। यह मरकर पापकर्म के कारण नरकादि गतियों में परिभ्रमण करेगा । यह विषयासक्ति का कटु विपाक है। तृतीय अध्ययन में अभग्नसेन का प्रसंग है। इसमें वह मद्यपान एवं अंडों का विक्रय कर प्राणियों को पीड़ित करता था। उसका जीवनवृत्त इस प्रकार है । पुरिमताल शालाटवी चोरपल्ली में विजय नाम का एक तस्कर अधिपति रहता था। उसकी पत्नी का नाम खंदसिरी था। उसके एक पुत्र हुआ जिसका नाम अभग्नसेन रक्खा गया। वह अभग्नसेन पूर्व भव में निर्णय नामक अंडों का बहुत बड़ा व्यापारी था। वह कबूतर, मुर्गी, मोरनी, आदि के अंडों को स्वयं एकत्रित करता, दूसरों से करवाता, फिर उन अंडों को आग पर तलता, भूनता और उन्हें बेचकर अपनी आजीविका चलाता और स्वयं भी उन अंडों का आहार करता । उस पाप के फलस्वरूप वह तृतीय नरक में उत्पन्न हुआ और वहां से निकलकर यह अभग्गसेन या अभग्नसेन तस्कर हुआ है। इसने प्रजा को अनेक यातनाएं दी हैं। उनके तन, धन, जन का अपहरण किया है। राजा ने अभग्नसेन को पकड़ने के अनेक प्रयास किये पर वह सफल न हो सका। अंत में एक महान् उत्सव में उसे राजा ने आमंत्रित किया और उसे पकड़कर अनेक प्रकार की यातनाएं देते हुए उसे शूली पर चढ़ाया गया। भगवान ने गौतम की जिज्ञासा पर उसके पाप की यह दारुण कथा बताई। चतुर्थ अध्ययन में शकट का जीवन प्रसंग है। शकट साहंजणी ग्राम के सुभद्र नामक सार्थवाह का पुत्र था । गणधर गौतम ने देखा कि राजपथ पर अनेक व्यक्तियों से घिरा हुआ एक व्यक्ति खड़ा है और उसके पीछे एक महिला खड़ी थी। उन दोनों की नाक कटी हुई थी और वे बन्धनों में जकड़े हुए थे। वे उच्च स्वर से पुकार रहे थे कि हम अपने पाप का फल भोग रहे हैं । गौतम ने भगवान महावीर से प्रश्न किया कि ये कौन हैं और इन्होंने ऐसा कौनसा पापकृत्य किया है जिसका ये फल भोग रहे हैं ? भगवान ने कहा-छगलपुर नगर में छनिक नामक कसाई था। वह अनेक पशुओं के मांस को बेचता था, जिसके फलस्वरूप वह चतुर्थ नरक में गया और वहां से निकलकर वैश्य सुभद्र की पत्नी भद्रा की कुक्षि से पैदा हुआ तथा सप्त व्यसनों का सेवन करने लगा । सुदर्शना नामक वेश्या से वह प्रेम
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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