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११. विपाकसूत्र
नामकरण
प्रस्तत सूत्र द्वादशांगी का ग्यारहवाँ अंग है। इस आगम में सुकृत और दुष्कृत कर्मों के विपाक का वर्णन किया गया है, अत: इसका नाम विपाकसूत्र है। ठाणांगसूत्र में इसका नाम कम्मविवागदसा मिलता है। प्रस्तुत आगम के दो श्रुतस्कन्ध हैं, २० अध्ययन हैं, २० उद्देशनकाल, २० समुद्देशनकाल, संख्यात पद, संख्यात अक्षर, परिमित वाचनाएँ, संख्यात अनुयोगद्वार, संख्यात वेढा नामक छन्द, संख्यात श्लोक, संख्यात निर्यक्तियाँ, संख्यात संग्रहणियाँ और संख्यात प्रतिपत्तियां हैं। वर्तमान में यह १२१६ श्लोक परिमाण है। विषय-वस्तु
कर्मसिद्धान्त जैनदर्शन का एक मुख्य सिद्धान्त है। उस सिद्धान्त का प्रस्तुत आगम में दार्शनिक विश्लेषण नहीं किन्तु उदाहरणों के द्वारा सम्यक प्रतिपादन किया गया है। प्रथम विभाग में दुष्कर्म करने वाले व्यक्तियों के जीवन-प्रसंगों का वर्णन है। इन प्रसंगों को पढ़ने से ज्ञात होता है कि कुछ व्यक्ति प्रत्येक युग में होते हैं, जो अपनी कर व हिंसक मनोवृत्ति के कारण भयंकर से भयंकर अपराध करते हैं और अपने दुष्कर्म के कारण उन्हें यातनाएँ सहन करनी पड़ती हैं। द्वितीय विभाग में सुकृत्य करने वाले व्यक्तियों के जीवन-प्रसंग हैं। जिस प्रकार क र कृत्य करने वाले व्यक्ति प्रत्येक युग में मिलते हैं वैसे ही सुकृत्य करने वाले व्यक्ति भी हर युग में मिलते हैं। अच्छाई और बुराई किसी युग-विशेष की देन नहीं हैं। अच्छे और बुरे व्यक्ति हर युग में मिल सकते हैं। स्थानांगसूत्र में कर्मविपाक के
१ (क) समवायांग प्रकीर्णक समवाय सूत्र ६६
(ख) नन्दी सूत्र ६१ (ग) तत्वार्थवार्तिक २०
(घ) कसायपाहुड, माग १, पृ० १३२ २ ठाणांग १०।११०