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________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १८५ तीसरी घ्राणेन्द्रियसंवर भावना है। घ्राण का अर्थ नाक है । नाक का स्वभाव है गन्ध का ज्ञान कराना। जो गन्ध मन को मधुर, मोहक और प्यारी लगती है, वह सुगन्ध है । जो अप्रिय और असुहावनी लगती है, वह दुगंध है । सुगन्ध - दुर्गन्धमय वस्तु सामने आने पर भी मन को रागद्वेष से पीड़ित न होने दे और ऐसी शिक्षा दे कि जिससे वह समभाव की स्थिति में रह सके । चतुर्थं रसनेन्द्रियसंवर भावना है । रसनेन्द्रिय के दो कार्य हैंचखना और बोलना । यह बोलकर भी सुख-दुःख देती है और खाकर भी । जैसे गाड़ी चलाने के लिए पहियों में तेल आदि लगाना पड़ता है जिससे कि गाड़ी ठीक चलती रहे, जैसे घाव को ठीक करने के लिए मरहम लगाना पड़ता है, वैसे ही शरीर को ठीक चलाने के लिए आहार की आवश्यकता है । अतः जो भी नीरस या सरस भोजन मिले उसे अस्वादभाव से ग्रहण करे । इसी प्रकार विवेकयुक्त वचन बोले । पाँचवीं स्पर्शनेन्द्रियसंवर भावना है। प्रति दिन शरीर को ठण्डे, गरम, हलके, भारी, खुरदरे, कोमल स्पर्श का अनुभव होता है। इस भावना में साधक मन को इस प्रकार की शिक्षा देता है कि ये शीत, उष्ण, कोमल जो भी स्पर्श हैं वे शरीर के हैं। साधक उनमें तटस्थ समाधिस्थ रहने का अभ्यास करे। मन को हर प्रकार के स्पर्श में सम रखे । इस प्रकार पाँच संवर द्वारों में २५ चारित्र भावनाएँ बताई हैं। इन भावनाओं के चिन्तन-मनन और जीवन में पुनः पुनः प्रयोग करने से साधक को त्यागमय, तपोमय व अनासक्त जीवन जीने की शिक्षा प्राप्त होती है और संयम के महामार्ग पर सम्यक् रीति से प्रयाण करने में सफलता प्राप्त होती है । उपसंहार आस्रव और संवर का निरूपण आगम साहित्य में अनेक स्थलों पर हुआ है किन्तु प्रश्नव्याकरणसूत्र में जिस विस्तार से विश्लेषण किया गया है वह अद्भुत और अनूठा है। वैसा वर्णन किसी भी अन्य आगम साहित्य में उपलब्ध नहीं है । प्रस्तुत आगम की यह अपनी विशेषता है। 0
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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