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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक है आहारसंयम । आहार का मन पर बहुत गहरा और शीघ्र प्रभाव पड़ता है । अतः श्रमण को भोजन सादा व शुद्ध करना चाहिए। प्रणीत आहार के पीछे दो दृष्टियाँ हैं घी, मसाले आदि गरिष्ठ भोजन व अधिक भोजन करना। ये दोनों बातें ब्रह्मचर्य के लिए घातक हैं। प्रणीत आहार से शरीर में रस, रक्त आदि उत्तेजित होते हैं और विकार बढ़ते हैं । गरिष्ठ भोजन से आलस्य आता है, प्रमाद बढ़ता है, मन में राक्षसी वृत्तियाँ जागृत होती हैं। अतः साधक सोचे कि शरीर को मात्र सहारा देने के लिए भोजन करना है, पुष्ट बनाने के लिए नहीं । इस भावना से भोजन के प्रति आसक्ति नहीं होती है । संयम की वृत्ति सुदृढ़ होती है ।
पाँचवें अध्ययन में अपरिग्रह का निरूपण है । धन, सम्पत्ति, भोगसामग्री आदि किसी भी प्रकार की वस्तुओं का ममत्वमूलक संग्रह करना परिग्रह है। परिग्रह में दो शब्द हैं। परि + ग्रह, परि का अर्थ है संपूर्णरूप से, ग्रह का अर्थ है ग्रहण करना। किसी भी वस्तु को सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करना या मूर्च्छा ममताबुद्धि के साथ ग्रहण करना परिग्रह है। जैनदर्शन का अभिमत है कि अपरिग्रह का अर्थ वस्तु का अभाव नहीं, अपितु ममता मूर्छा का अभाव है । किसी भी वस्तु में चाहे वह छोटी हो या बड़ी हो, जड़ या चेतन हो, बाह्य या अभ्यन्तर हो, उसमें आसक्ति रखना, उसमें बँध जाना, उसके पीछे पड़ कर अपना विवेक खो बैठना - परिग्रह है। पूर्ण अपरिग्रही साधक को दाँत, शृङ्ग, काँच, पत्थर एवं चर्म आदि के पात्र एवं सचित्त फल-फूल, कंदमूल आदि ग्रहण करने का निषेध किया गया है। अपरिग्रही साधक भोजन के लिए भी हिंसा नहीं करता । वह शरीर रक्षा व धर्मसाधना के लिए जो वस्त्र - पात्र ग्रहण करता है वह निर्ममत्व भाव से ही ग्रहण करता है व धारण करता है। इस व्रत की पाँच भावनाएँ हैं ।
प्रथम भावना श्रोत्रेन्द्रियसंवररूप शब्द भावना है। कोई स्तुति करे या निन्दा करे, मधुर बोले या कटु बोले तो भी साधक मन को इस प्रकार की शिक्षा दे जिससे कि वह शब्द विषयों के प्रति आकृष्ट या विकृष्ट न हो ।
दूसरी भावना चक्षुरिन्द्रियसंवररूप निस्पृह भावना है। साधक के सामने चाहे सुन्दर या असुन्दर कोई भी वस्तु आवे वह स्थितप्रज्ञ की उसे देखे, न मन में रागद्वेष करे और न वाणी से निंदा-स्तुति हो । किन्तु तटस्थ रहकर चक्षुरिन्द्रिय संयम का अभ्यास करे ।