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________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १८३ मानव समाज पूर्ण सुख और शांति प्राप्त करता है। ब्रह्मचर्य की महिमा और गरिमा का वर्णन करते हुए भगवान ने 'उत्तमं बंभं भगवंत' कहा है । मुनियों में तीर्थंकर श्रेष्ठ हैं ऐसे ही व्रतों में ब्रह्मचर्य है। यह व्रतों का मुकुटमणि है। ब्रह्मचर्य का अर्थ है-सभी इन्द्रिय और सम्पूर्ण विकारों पर अधिकार पा लेना। ब्रह्मचर्य से तेज, धृति, साहस और विद्या की प्राप्ति होती है। इस व्रत की पाँच भावनाएँ हैं। प्रथम भावना है-असंसक्तवासवसतिभावना। जहाँ-जहाँ और जिन-जिन कारणों से ब्रह्मचर्य में दूषण और स्खलनाएं होने की संभावनाएं हों उन कारणों, स्थानों और प्रसंगों का वर्जन करते रहना भावनाओं का मुख्य लक्ष्य है। वातावरण से मन प्रभाबित होता है अतः मन को ब्रह्मचर्य में स्थिर रखने के लिए यह आवश्यक है कि चंचलता उत्पन्न करने वाली बातें, मोहपूर्ण कामोत्तेजक वातावरण जहाँ हो वहाँ साधक को नहीं रहना चाहिए। इस भावना में स्त्रीसंसर्गयुक्त आवास का वर्जन है। दूसरी भावना स्त्रीकथाविरति है। साधु अपने चिन्तन को स्त्रीकथा से विरत रखकर धर्मकथा की ओर मोड़ता है। तीसरी भावना स्त्रीरूपनिरीक्षणविरति है। स्त्री के रूप को कामुक दृष्टि से देखना, उस पर आसक्त होना, पुन: पुन: देखते रहने का प्रयत्न करना और सौन्दर्य की प्रशंसा करना यह राग का कारण और चारित्र को दूषित करने वाला है। जैसे सूर्य के सामने देखने से आँखें चंधिया जाती हैं वैसे ही स्त्री का सौन्दर्य कामुक दृष्टि से देखने पर मन की आँखें भी चुंधिया जाती हैं। मन में ब्रह्मचर्य के संस्कार सुदृढ़ बनाना आवश्यक है । स्त्री का सौन्दर्य और उसके अंग-प्रत्यंग आदि की ओर दृष्टि न डाले। चतुर्थ भावना है--पूर्वरत-पूर्वक्रीडितविरति । श्रमण ने अपने गृहस्थ जीवन में अपनी पत्नी, प्रेयसी या अन्य किसी स्त्री के साथ कामक्रीड़ा की हो, मधुर प्रेमालाप किया हो, उसके शरीर के विविध अंगों का स्पर्श किया हो, यदि वह उनको स्मरण करे तो उसकी याद ताजी हो जायगी और विकार उत्पन्न हो जायेंगे। अतः पूर्व-जीवन में भोगे हुए कामभोगों का साँप, जो कि स्मृतियों में मूच्छित होकर छिपा पड़ा है वह, विचारों की स्मृति से गर्मी पाकर पुन: चैतन्य और गतिशील न हो, इसलिए ऐसे संस्कार बनाये जाएँ जिससे स्मृति उस ओर न मूड़े। पांचवीं भावना प्रणीतआहारविरति समिति है। ब्रह्मचर्य की साधना में बाह्य शुद्ध वातावरण
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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