SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १८२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा यदि शय्यासंस्तारक अनुकूल न मिले तब भी वह खिन्न न हो। वह यही सोचे कि पृथ्वी ही सुन्दर सेज है, वह पुष्पशय्या के समान है और अपनी भुजा ही मुलायम तकिया है । इस प्रकार वह मन में समाधि रखता है। तीसरी भावना शय्यासंस्तारकपरिकर्मवर्जनारूप शय्यासमिति है। यह उपर्युक्त दोनों भावनाओं का सम्मिलित रूप है। श्रमण जिस मकान में रहे वह यदि हवादार न हो, टूटा-फूटा हो, मच्छर आदि हों, तो अपनी सुखसुविधा के लिए उसकी मरम्मत करवाने की न सोचे। बिछौने के सम्बन्ध में भी यही बात है। जहाँ हिंसा है वहां चोरी भी है क्योंकि जिन जीवों के प्राण लिए जा रहे हैं उनकी अनुमति तो प्राप्त की ही नहीं है। पर-प्राणहरण पर-धनहरण से भी बड़ी चोरी है। इस प्रकार मन को समतायोग में रमा कर शय्यापरिकर्म की वर्जना करता हआ अपने चारित्र को निर्मल रखे। चतुर्थ भावना अनुज्ञातभक्तादि भोजनलक्षणा साधारणपिंडपातलाभ समिति है। आवास, शय्या के पश्चात् भोजन आता है। इस भावना में जो भी आहार प्राप्त हो उसे अकेला भोगने की इच्छा न करे और न उसे छिपाकर रख ले। यह संघ व आचार्य की चोरी है। इससे संघ और सार्मिकों के अधिकार का हनन होता है। संघ में अविश्वास और अप्रीति बढ़ती है। जो अकेला खाता है वह अपने चारित्र को दूषित करता है। संविभाग नहीं करने वाले को मुक्ति नहीं मिलती। असंविभागी श्रमण पापश्रमण है। अत: श्रमण को सदा संविभाग---समान वितरण की वृत्ति व संस्कार जागृत करने के लिए उक्त भावना का चिन्तन करते रहना चाहिए। पाँचवीं भावना सार्मिकों में विनयकरणभावना समिति है। साधमिक का अर्थ समान धर्म व समान आचार वाला है। प्रत्येक श्रमण का धर्म, नियम, मर्यादा व आचार समान होता है। अतः वे परस्पर सार्मिक कहलाते हैं। सार्मिक के प्रति सम्मान की भावना रखने का माध्यम बिनय है। विनय से सबके हृदय प्रेमसूत्र में बंध जाते हैं। इस भावना में मानसिक वातावरण ऐसा बनाना चाहिए जिसमें सेवा, सहयोग, स्नेह और विनय के फूल सदा खिलते रहें, महकते रहें। चतुर्थ अध्ययन में ब्रह्मचर्य का विश्लेषण है। ब्रह्मचर्य अपने आप में एक बहुत बड़ी आध्यात्मिक शक्ति है। आध्यात्मिक स्वास्थ्य है, जिससे
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy