SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १८१ में हास्य और असत्य वचनों का समावेश न हो। उसकी वाणी सदा संयत और गंभीर रहे। तीसरे अध्ययन में अचौर्य पर प्रकाश डाला है। अचौर्य अहिंसा और सत्य का ही रूप है। जैसे छिपकर या बलात्कारपूर्वक किसी व्यक्ति की वस्तु या धन का हरण करना चोरी है वैसे ही अन्यायपूर्वक किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र का अधिकार हरण करना भी चोरी है। वह साधक मन, वचन व कर्म से न किसी की चोरी करता है, न करवाता है, और न करने का अनुमोदन करता है। अहिंसा और सत्य का अचौर्य के साथ गहरा संबंध है। अहिंसा से मन में करुणा की भावना पुष्ट होती है। सत्य से साहस व अभयनिष्ठा जागृत होती है । अचौर्य से मन की असीम आकांक्षा और वितृष्णा पर अंकुश रहता है । हिंसा में क्रूरता मुख्यरूप से रहती है जबकि चोरी में तृष्णा की मुख्यता होती है। किसी भी सुन्दर वस्तु को देखकर तस्कर के मन में इच्छा होती है कि मैं इसे कैसे प्राप्त करूं? उसके मन में चंचलता आती है और येन-केन-प्रकारेण उस वस्तु को प्राप्त करता है। इस सूत्र में चोरी की दो परिभाषाएँ प्राप्त होती हैं-(१) अर्थहरण चोरी और (२) अधिकार हरण चोरी। इस व्रत की पाँच भावनाएं हैं। प्रथम निमित्तवाससमितिभावना-जो स्थान प्रासुक हो, किसी को पीडाकारी न हो, जहाँ पर स्त्रियों का आवागमन न हो, जहाँ पर रहने से साधु के आचार में कोई स्खलना होने की संभावना न हो और किसी प्रकार का आरंभ-समारंभ न करना पड़े ऐसे स्थान में आवास करना चाहिए। श्रमण चिन्तन करे कि मैं अनगार हैं; जैसे साँप चूहों के बनाये हुए बिल में रहता है उसी प्रकार मुझे परकृत-दूसरों के निमित्त बने हुए निर्दोष मकानों में ही रहना चाहिए । सर्दी, गर्मी और वर्षा में असुविधा होने पर वह सोचे कि ये क्षणिक हैं, मुझे हमेशा के लिए यहाँ नहीं रहना है। मेरा जीवन तो सरिता की भाँति गतिशील है। आज यहाँ तो कल वहाँ, मुझे अपने व्रतों की रक्षा करनी है। इस प्रकार के चिन्तन से वह अपनी भावना को सुदृढ़ बनाता है। दूसरी भावना अनुज्ञातसंस्तारकग्रहणरूप अवग्रह समिति है । आवास की चिन्ता से मुक्त होने पर श्रमण के सामने दूसरी चिन्ता बिछौने या संस्तारक की है । श्रमण बिना दी हुई कोई भी वस्तु ग्रहण नहीं कर सकता।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy