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१८० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा है। क्रोध की भांति लोभ भी सत्य का शत्रु है। क्रोध द्वेषात्मक वृत्ति है तो लोभ रागात्मक है। जिस प्रकार सहस्ररश्मि सूर्य पर बादल छा जाने से उसका प्रकाश मंद हो जाता है और कभी-कभी काली घटा के आने से अंधकार भी हो जाता है वैसे ही बुद्धि रूपी सूर्य पर क्रोध और लोभ की घटाएं छा जाने पर विवेक का प्रकाश लुप्त हो जाता है और मन में अविवेक का अंधकार व्याप्त हो जाता है। बिल्ली जैसे दूध पीने के लालच में सामने पड़ी हुई लकड़ी को नहीं देखती वैसे ही लोभ के कारण आने वाली विपत्तियों को मानव नहीं देखता । वह अनेक विपत्तियाँ सहन करता है । सत्य का साधक सतत यह चिन्तन करता है कि अशन, वसन और भवन, जिस पर मैं लुब्ध हो रहा है, जिनकी ममता में मैं पागल हो रहा है, जिनके लोभ का ज्वार ज्वर की तरह मुझे पीड़ित कर रहा है, यह सब संपत्ति तो विपत्ति है। सच्ची संपत्ति तो आत्म-शांति है। इस भावना से साधक लोभ पर विजय प्राप्त कर अपूर्व उल्लास, निस्पृहता का अनुभव करता है। चतुर्थ भावना भयवर्जनरूप-धैर्ययुक्त अभय भावना है। लोभ एक तरह से मीठे ठग के सदृश है । वह साधक के जीवन-रस को चुपके-चुपके चूसता है किन्तु भय कड़वा ठग है। भय से मन आतंकित, दुर्बल और व्याकुल हो जाता है। भय जीवन को अंधकार में ढकेलने वाला है और मनोबल को गिराने वाला है। भयभीत मानव कभी सत्य नहीं बोल सकता, अत: साधक सदा भय से दूर रहता है। वह चिन्तन करता है-ज्ञान, दर्शन, चारित्र जैसी अमूल्य निधि मेरे पास है, विवेक-विचार-संतोष व समत्व जैसे परम स्नेही मित्र मेरे सहायक हैं फिर मुझे किस बात का डर है ? इस प्रकार के चिन्तन-मनन से मन में निर्भयता के संस्कार दृढ़ होते हैं और वह धैर्ययुक्त अभय भावना से आत्मा को भावित करता है। पांचवीं भावना हास्यमुक्तिवचनसंयमरूप है। हास्य सत्य का शत्रु है। सत्यवक्ता एक-एक वचन चिन्तन की गहराई में डूबकर प्रयोग करता है जिसमें विवेक की चमक होती है। किन्तु हंसीमजाक में बोलने वाला शब्दों का विवेकयुक्त चुनाव नहीं करता। वह तो ऐसी बात कहना चाहता है जिससे सुनने वाले हँस पड़ें। वह झूठ भी बोलता है, अतिशयोक्ति भी करता है, विदूषक या भांड के समान कुचेष्टा कर विविध प्रकार की आवाजें भी निकालता है। ये सब आचरण त्याज्य हैं क्योंकि जिसका मजाक किया जाता है उसके हृदय में चोट पहुँचती है । अतः साधक सतत सावधान रहकर ऐसे संस्कार जागृत करे जिससे उसकी वाणी