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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १७६ पात्र कंबल, दंड, रजोहरण, चोलपट्ट, मुखवस्त्रिका और पैर पोंछने का कपड़ा आदि उपकरणों को राग-द्वेष रहित भावना से यतनापूर्वक ग्रहण करे । जो साधक इस प्रकार नियमों का पालन करता हुआ जीवन यापन करता है वह आराधक है ।
द्वितीय अध्ययन में सत्य का विश्लेषण किया गया है । वस्तु का यथार्थ ज्ञान और भाषण सत्य है । सत्य, अहिंसा का ही विराट रूप है । सत्य का व्यवहार केवल वाणी से ही नहीं होता अपितु उसका मूल उद्गम स्थान मन है । जैसा देखा हो, जैसा सुना हो, जैसा अनुमान किया हो वैसा ही वाणी से कथन करना और मन में धारण करना सत्य है । सत्य कोमल व मधुर होना चाहिए। जिस वाणी से प्राणियों का हित न हो, जिससे मन में कष्ट हो वह सत्य होते हुए भी सत्य नहीं है अतः सत्य 'शिवं सुन्दर' होना चाहिए। भगवान महावीर ने सत्य को भगवान कहा है। सत्यवादी न समुद्र में डूबता है, न अग्नि में जलता है, विकट से विकट परिस्थिति में भी वह सुरक्षित रहता है। वह देव-दानव और मानव द्वारा वंदनीय है । सत्यवादी श्रमणों के लिए भाषा सम्बन्धी ज्ञान आवश्यक है। जिससे वह नामसत्य, रूपसत्य, स्थापनासत्य जैसे भेदों की वास्तविकता को जान सके जो व्यवहार की दृष्टि से सत्य माना जाता है। सत्य धर्म के रक्षणार्थं पाँच भावनाएँ प्रतिपादित की हैं।
प्रथम भावना अनुचिन्त्य समिति रूप है। सद्गुरु से मृषावाद विरमण - सत्यवचनप्रवृत्तिरूप संवर के प्रयोजन को सुनकर, उसके रहस्य को जानकर संशययुक्त व शीघ्र शीघ्र न बोले, कटुवचन न बोले, चंचलता से न बोले, चिन्तन-पुरस्सर बोले। दूसरी भावना क्रोधनिग्रह शांतिरूप है । क्रोध न करे, चूंकि क्रोधी मानव रौद्ररूप परिणामों के वशीभूत होकर मिथ्या बोलता है, वह एक दूसरे की चुगली खाता है और वैर-विरोध पैदा कर देता है । वह सत्य - शील- सदाचार का नाश करता है । क्रोधी मानव सर्वत्र तिरस्कार का पात्र होता है । अत: क्रोध करना उचित नहीं है । क्षमाभाव की सुरसरिता में निमग्न रहने वाला साधक सदा आनंद का अनुभव करता है। तीसरी भावना लोभविजयरूप निर्लोभभावना
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पंचमं आदाननिक्लेवणसमिईपीढफलग सिज्जा संथारगवत्थपत्त-कंबल दंडगरयहरणचोलपट्टगमुहपोत्तिग पायपुंछनादी । ---श्री प्रश्नव्याकरण २।१।२३