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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
अन्तर्मानस में द्वेष, घृणा व अपकार की भावना का अभाव हो और प्रेम, करुणा व कल्याण भावना का सागर उछल रहा हो, तो शिक्षा के लिए उचित ताड़ना देना, रोग निवारण के लिए कटु औषध देना, जीवन को सुधारने के लिए प्रायश्चित देना हिंसा नहीं है । मन में दूषित भावना हो या संकल्पपूर्वक अपने निमित्त से किसी दूसरे के मन में दूषित भावना पैदा की हो तो हिंसा है।
अहिंसक साधक के मन-वाणी व जीवन के कण-कण में अहिंसा का स्वर झंकृत होता है। उसके चित्त में अहिंसा की निर्मल स्रोतस्विनी प्रवाहित होती है। उसके भाषण में दया का मधुर रस बरसता है और उसकी प्रत्येक शारीरिक प्रवृत्ति में अहिंसा की सुमधुर झंकार झंकृत होती है। वह अहिंसा भगवती की ब्रह्म के समान उपासना करता है। जैसे पक्षियों के लिए अनंत आकाश और नौका के लिए समुद्र आधार है वैसे ही समस्त जीवों के लिए अहिंसा आधार है । वह क्षेमंकरी है। तीर्थंकरों द्वारा सुदृष्ट है और विशिष्ट ज्ञानियों द्वारा अनुपालित व उपदिष्ट है। अहिंसा के रक्षणार्थ आहार-शुद्धि आवश्यक है । षट्काय के जीवों की रक्षा के निमित्त शुद्ध आहार की गवेषणा का इसमें उपदेश दिया गया है। श्रमण को किस प्रकार आहार की गवेषणा करनी चाहिए इस पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है। जो आहार कृतकारित न हो, क्रयदोष से रहित हो, उद्गम, उत्पात व एषणा दोष से दूषित न हो किन्तु नवकोटि शुद्ध हो वह आहार श्रमण के लिए ग्राह्य है। मंत्र -मूलभैषज्य स्वप्नफल और ज्योतिष आदि बताकर लिया गया आहार अग्राह्य है । अहिंसा के इस व्रत की रक्षा के लिए पांच भावनाएँ बताई गई हैं।
प्रथम भावना में स और स्थावर जीवों की रक्षा हेतु देखकर चलना, इसे ईर्यासमिति कहते हैं। दूसरी भावना मनःसमिति की है; जिसमें अशुभ व अधार्मिक विचार नहीं करना व तीसरी भावना वाक्समिति की है, जिसमें सावध भाषा का प्रयोग न करना प्रतिपादन किया गया है। चौथी भावना एषणासमिति की है जिसमें भिक्षंषणा के निमित्त श्रमण को यह निर्देश किया गया है कि वह अनेक घरों से स्वल्प-स्वल्प भिक्षा ग्रहण करे, गुरु के समक्ष उसकी आलोचना करे और अप्रमत्त होकर शुभयोगों का चिन्तन करे । उसके पश्चात् सभी श्रमणों को निमंत्रित कर मूर्च्छारहित होकर केवल साधना हेतु प्राणधारण करने की दृष्टि से आहार ग्रहण करे । पाँचवी आदाननिक्षेपणसमिति में पीठ, फलग और शय्या संस्तारक, वस्त्र