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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १७७ सुवर्णगुलिका, किन्नरी, सुरूपा, विद्युन्मति और रोहिणी के लिए कितने भयंकर संग्राम हुए हैं, इस पर शास्त्रकार ने प्रकाश डाला है। मैथुन के दारुण दुःखों का विश्लेषण करते हुए शास्त्रकार ने इन्द्रियों और मन पर संयम रखने की प्रबल प्रेरणा प्रदान की है।
पंचम अध्ययन में परिग्रह का उल्लेख है। संचय, उपचय, निधान, पिंड, महेच्छा, उपकरण, संरक्षण, संस्तव, आसक्ति ये सभी परिग्रह के पर्यायवाची हैं। इसमें वृक्ष के रूपक के माध्यम से परिग्रह का वर्णन किया गया है। इसमें यह बताया है कि चार जाति के देव, देवी एवं कर्मभूमि के चक्रवर्ती सम्राट से लेकर एक भिखारी में भी परिग्रह वृत्ति होती है। परिग्रह वृत्ति के कारण ही मानव सैकड़ों प्रकार की शिल्पादि कलाओं का अध्ययन करता है, पुरुषों की ७२ व स्त्रियों की ६४ कलाओं का अध्ययन करता है। परिग्रह के हेतु ही हिंसा, झूठ, अदत्तहरण आदि दुष्कर्म तथा क्षुधा-पिपासा और अपमान आदि के विविध कष्टों को सहन करता है। परिग्रह का बंधन सबसे बडा बंधन है। परिग्रही व्यक्ति इस जीवन में भी दु:खी होता है और परलोक में भी। अत: शास्त्रकार ने कहा-'संपूर्ण दुःखों को दूर करने वाली यह जिनवाणी रूपी औषध सभी को नि:शुल्क दी जा रही है, पर इसका सेवन न कर असह्य कष्टों को भोग रहे हैं। यही सबसे बड़ा आश्चर्य है।''
दूसरे श्रुतस्कन्ध में पांच धर्मद्वारों-संवर द्वारों का वर्णन किया गया है। वे ये हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। पञ्च संवरद्वार
द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में अहिंसा का विश्लेषण है। अहिंसा के निर्वाण, निर्वति,समाधि, शक्ति, कीति, कांति, दया, विमुक्ति, अभय आदि ६० नाम बताये गये हैं। हिंसा का लक्षण है-प्रमाद व कषायवश किसी भी प्राणी के प्राणों को मन, वचन व काया से बाधा पहुँचाना। इसलिए अहिंसा का लक्षण होगा 'उन्हें बाधा न पहुँचाना'। केवल बाधा पहुँचाना ही नहीं अपितु उसके लिए किसी भी तरह की अनुमति देना भी हिंसा है। प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में प्राणी को कष्ट न देना अहिंसा है। अहिंसा और हिंसा की आधारभूमि मुख्य रूप से भावना है। मन में हिंसा है तो बाहर में अहिंसा होने पर भी हिंसा ही है। यदि मन में पवित्र भावमाएँ अंगड़ाइयां ले रही हैं, विवेक प्रबुद्ध है तो बाहर में हिंसा प्रतीत होते हुए भी अहिंसा है।