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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
पीड़ा देने वाले असद् - अप्रशस्त वचन बोलना भी असत्य है । असत्यवादी इस लोक में भी अविश्वास का पात्र बनता है और परलोक में भी उसे नरक, तिर्यंच गति की असह्य वेदना भोगनी पड़ती है । मृषावादियों में जुआरी, गिरवी रखने वाले वणिक, होनाधिक तौलने वाले, नकली मुद्रा बनाने वाले, स्वर्णकार, वस्त्रकार, चुगलखोर, दलाल, लोभी, स्वार्थी आदि के नाम गिनाये गये हैं। साथ ही नास्तिकों, एकान्तवादियों और कुदर्शनवादियों को भी मृषाभाषी कहा है ।
तृतीय अध्ययन में तस्कर कृत्य को चिन्ता और भय की जननी बताया गया है। किसी की वस्तु को स्वामी की अनुमति के बिना ग्रहण करना अदत्तादान । चोरी केवल दूसरे के अर्थ या पदार्थों की ही नहीं होती अपितु अधिकार, उपयोग या भावों की भी होती है। विश्व में जितने भी पापकृत्य हैं उनमें भय रहा हुआ है। प्रारम्भ में जब मानव पापकृत्य करता है तब उसे एक प्रकार से अव्यक्त भय प्रतीत होता है किन्तु धीरे-धीरे अभ्यस्त होने से उसे भय की प्रतीति भले ही न हो, पर भय रहता ही है । आज विश्व में अशान्ति के काले कजरारे बादल उमड़-घुमड़कर मंडरा रहे हैं, सबल निर्बल के अधिकार छीनना व झपटना चाहता है; इसके मूल में स्तेयवृत्ति ही कार्य कर रही है। उसी वृत्ति से मानव का चरित्र दिनप्रतिदिन गिर रहा है। भगवान महावीर ने कहा कि अत्यधिक लालसा वाले, पर-धन और पर भूमि पर आसक्त, पर राष्ट्र पर अधिकार करने की लालसा से आक्रमण करने वाले, अश्वचोर, पशुचोर, दासचोर आदि के सभी उपक्रम तस्कर परिधि में गर्भित हैं। तस्कर के उपक्रमों पर भी विस्तार से विवेचन करते हुए उन्हें परद्रव्यहारी, अनुकंपारहित एवं निर्लज्ज कहा है। चोर को न तो इस लोक में शांति मिलती है और न परलोक में ही ।
चतुर्थ अध्ययन में मैथुन -कुशील को जरा-मरण, राग, द्वेष, शोक व मोह का विवर्धक कहा है। मैथुन अधर्म का मूल, जीवन में महान् दोषों की अभिवृद्धि करने वाला, आत्मा के पतन का जनक और मोक्षमार्ग में विघ्नरूप है। इसके अब्रह्म आदि ३० नाम प्रतिपादित किये गये हैं। प्यास लगने पर जैसे केरोसिन पीने पर प्यास शांत नहीं होती, वह और अधिक भड़कती है यही स्थिति भोग भोगने पर होती है। लाखों-करोड़ों वर्षों तक भोग भोगने पर भी देवगण तृप्त नहीं होते। मैथुनासक्त प्राणी महान् अनर्थ भी कर देते हैं। सीता, द्रौपदी, रुक्मिणी पद्मावती, तारा, कंचना, सुभद्रा, अहिल्या,