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१७४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
प्राचीन प्रश्नव्याकरण की रचना क्यों की ?
यह प्रश्न सहज ही उद्भूत हो सकता है कि वीतराग तीर्थंकर! प्रभु ने ऐसे विषय का निरूपण ही क्यों किया जिसे बाद में निकालना पड़ा ? उत्तर में निवेदन है कि - उत्सर्ग मार्ग में इस प्रकार की विद्याओं का उपयोग निषिद्ध माना है पर आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु और भावुक भव्य जीवों के अन्तर्मानस में त्याग - वैराग्य की भावना पैदा करने के लिए, उनके अन्तर्मानस में यह विश्वास पैदा करने के लिए कि अतीतकाल में तीर्थंकर हुए हैं, उन्होंने इस प्रकार के अलौकिक प्रश्नों का प्रतिपादन किया है। यदि तीर्थंकर न होते तो इस प्रकार के प्रश्नों का प्रादुर्भाव भी नहीं हो सकता था। अतः अपवाद रूप में आचार्य इन विद्याओं का उपयोग करते थे । सम्भव यही है-काल प्रभाव से परिस्थिति परिवर्तित होने से विशिष्ट ज्ञानसंपन्न श्रुतधर आचार्यों ने इन विद्याओं के दुरुपयोग की आशंका होने से उन्होंने उन विद्याओं को प्रस्तुत अंग में से निकाला हो । विशेष शोधार्थियों को इस सम्बन्ध में अन्वेषण करना चाहिए।
प्रश्नव्याकरण के दश अध्ययन और एक श्रुतस्कन्ध हैं । इस कथन का समर्थन प्रश्नव्याकरण के उपसंहार वचन से एवं नन्दी और समवायांग से होता है। किन्तु अभयदेवसूरि ने प्रश्नव्याकरण की वृत्ति में लिखा है कि प्रश्नव्याकरण के दो श्रुतस्कन्ध हैं--आस्रवद्वार और संवरद्वार। प्रत्येक श्रुतस्कन्ध के पांच-पांच अध्ययन हैं। वे आगे यह भी लिखते हैं कि दो श्रुतस्कन्ध की नहीं अपितु एक श्रुतस्कन्ध की मान्यता ही रूढ़ है । हमारी दृष्टि से दो श्रुतस्कन्ध की मान्यता तर्कसंगत है क्योंकि आस्रव और संवर ये दो भिन्न भिन्न विषय हैं ।
लभ्यते । पूर्वाचार्यैरैयुगीन पुरुषाणां तथाविधहीन हीनतर पाण्डित्य बल-बुद्धि-वीर्यापेक्षया पुष्टालम्बनमुद्दिश्य प्रश्नादिविद्यास्थाने पञ्चास्रव संवररूपं समुत्तारितम् । -- प्रश्नव्याकरणटीका, प्रारंभ - प्रश्नव्याकरण उपसंहार
१ पण्हावागरणे णं एगो सुयक्खंधो दस अज्झयणा ।
२
नंदी सू० १३
३ समवायांग प्रकीर्णक सूत्र ।
४
... दो सुयक्खंधा पण्णत्ता - आसवदारा य संवरदारा य घस्स........पंच अज्झयणा ...। दोच्चस्सणं सुयक्खंधस्स पंच अज्झयणा ।
५ " याचेयं द्विश्रुतस्कन्धतोक्ताऽस्थ सा न रूढा, एक श्रुतस्कन्धताया एवं रूढत्वात् ।"
पढमस्सणं सुयक्ख