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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १६५ भगवान महावीर के दर्शन के लिए पहुँचा और उपदेश सूनकर दीक्षा ली। दीक्षा लेने के पूर्व माता-पिता ने उसकी परीक्षा भी ली। दीक्षा लेते समय उसकी उम्र छः वर्ष की थी। भगवतीसूत्र में जलप्रवाह में नाव तिराने का भी प्रसंग है। उसने गुणमंवत्सर तप कर अन्त में विपुलगिरि पर संलेखना । कर अजर-अमर पद प्राप्त किया।
सातवें और आठवें वर्ग के तेईस अध्ययनों में नन्दा, नन्दमती एवं काली, सुकाली आदि राजा श्रेणिक की तेईस रानियों के उग्र साधनामय जीवन का वर्णन है। जिनका सम्पूर्ण जीवन राजमहलों में बीता था और मखमल के मुलायम गलीचों पर चलने से भी जिनके सुकोमल पर छिल जाते थे वे राजरानियाँ जब भगवान महावीर के शासन में संयमी बनी तब मुक्तावली, रत्नावली, कनकावली, लघुसिंहनिक्रीडित, महासिंहनिक्रीडित, लघुसर्वतोभद्र, महासर्वतोभद्र, भद्रोत्तर एवं आयंबिल वर्धमान जैसे उग्र तपों का आचरण करती हैं। जिस वर्णन को पढ़कर पाठक के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इस प्रकार उग्र तप की साधना से कर्मों को नष्ट करके वे मुक्त होती हैं। उपसंहार
यह सम्पूर्ण आगम भौतिकता पर आध्यात्मिक विजय का संदेश प्रदान करता है। सर्वत्र तप की उत्कृष्ट साधना दिखलाई देती है। भगवान महावीर ने उपवास और ध्यान दोनों को महत्त्व दिया था। एक को बाह्य तप और दूसरे को आन्तरिक तप कहा। यहाँ यह स्मरण रखना चाहिए कि बाह्य तप के साथ उनका आन्तरिक तप-ध्यानादि भी चलता था। यद्यपि ध्यान का उल्लेख नगण्य रूप से हुआ है पर बाह्य तप के साथ ध्यान अनिवार्य है।
षड्वर्ष जातस्य तस्य प्रवजितत्वात् आह-छब्वरिसो पव्व इयो निम्गंध रोइकण पाबयणं ति एतदेवाश्चर्यम् अन्यथा वर्षाष्टकादारान्न दीक्षा स्यात् ।।
-दानशेखर की टीका, पत्र ७३-१