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________________ १६४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा बलदेव के साथ एकाकी दक्षिण दिशा के किनारे पाण्डु-मथुरा जाने के लिए निकलोगे। उस समय कौशाम्बी नगरी के कानन में न्यग्रोध नामक वृक्ष के नीचे पृथ्वीशिला पट पर पीतवस्त्र से अपने शरीर को आच्छादित कर तुम शयन करोगे । उस समय जराकुमार वहाँ आएगा और मृग के भ्रम से तीक्ष्ण बाण छोड़ेगा । वह बाण तुम्हारे पैर में लगेगा । उससे बिद्ध होकर काल कर तुम तृतीय पृथ्वी में उत्पन्न होओगे। कृष्ण के चिन्तित होने पर भगवान ने पुनः कहा कि तृतीय पृथ्वी से निकलकर जम्बूद्वीप के शतद्वार नामक नगर में बारहवें अमम नामक तीर्थकर बनोगे। यह सुन श्रीकृष्ण बहुत ही प्रसन्न हुए। श्रीकृष्ण की रानी पद्मावती, गोरी, गांधारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जाम्बवंती, सत्यभामा और रुक्मिणी ने दीक्षा ग्रहण की। और श्रीकृष्ण के पुत्र शाबकुमार की पत्नी मूलश्री व मूलदत्ता ने भी दीक्षा ग्रहण कर उत्कृष्ट साधना कर शिव पद प्राप्त किया। : छठे वर्ग में श्रमण भगवान महावीर के शासन में हुए सोलह साधकों का वर्णन है । उसमें गाथापति, माली, राजा और बालक सभी हैं। . अर्जुन मालाकार जो राजगृह में रहता था, उसकी पत्नी बंधुमती थी। नगर के बाहर सुन्दर बगीचा था, जहाँ मोग्गरपाणि यक्ष का आयतन था। अर्जुन उसका उपासक था। एक बार वह अपनी भार्या के साथ बगीचे में पुष्प चुन रहा था कि नगर के स्वच्छन्दविहारी छह व्यक्तियों की टोली वहाँ पर आई और अर्जुन को बाँध बन्धुमती के साथ दुष्कृत्य करने लगी। यह दृश्य देखकर अर्जुन को अत्यधिक वेदना हुई और यक्ष पर क्रोष भी। उसी क्षण यक्ष अर्जुन के शरीर में प्रविष्ट हो गया, वह प्रतिदिन छह पुरुष और एक स्त्री की हत्या करने लगा। सुदर्शन शेठ के सत्संग से वह यक्ष के कष्ट से मुक्त हो गया और भगवान महावीर के चरणों में दीक्षा ग्रहण कर एक अभिनव आदर्श उपस्थित किया। - इस वर्ग में मुनि अतिमुक्त कुमार का भी वर्णन है। जो अपने बालसाथियों के साथ खेल रहा था । गणधर गौतम के अद्भुत रूप को निहारकर उसने पूछा, 'भदन्त ! आप कौन हैं और क्यों इस प्रकार घर-घर घूम रहे हैं ?' गौतम ने कहा कि हम श्रमण निर्ग्रन्थ हैं और भिक्षा के लिए परिभ्रमण कर रहे हैं। तब वह गौतम की अंगुली पकड़कर अपनी मां के पास लाया और अत्यन्त भाव-प्रवणता से भिक्षा प्रदान की। फिर वह गौतम के साथ
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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