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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १६३ अक्षोभ, प्रसेनजित और विष्णु । स्थानांगवत्ति में आचार्य अभयदेव ने इसे वाचनान्तर लिखा है। इससे यह ज्ञात होता है कि वह समवायांग में वणित वाचना से पृथक् है। अन्तगड शब्द के संस्कृत रूप दो प्राप्त होते हैं-(१) अन्तकृत, (२) अन्तःकृत्। अर्थ की दृष्टि से दोनों में अन्तर नहीं है किन्तु गड का कृत रूप अधिक उपयुक्त है। विषय-वस्तु
प्रस्तुत आगम में एक श्रुतस्कन्ध, आठ वर्ग, ९० अध्ययन, ८ उद्देशनकाल, ८ समुद्देशनकाल और परिमित वाचनाएँ हैं। इसमें अनुयोगद्वार, वेढा, श्लोक, नियुक्तियाँ, संग्रहणियाँ एवं प्रतिपत्तियाँ संख्यात-संख्यात हैं। इसमें पद संख्यात और अक्षर संख्यात हजार बताये गये हैं। वर्तमान में प्रस्तुत अंग १०० श्लोक परिमाण हैं । इसके आठों वर्ग क्रमशः १०, ८, १३, १०, १०, १६, १३, और १० अध्ययनों में विभक्त हैं। प्रथम दो वर्गों में गौतम आदि वृष्णि कुल के १८ राजकुमारों की साधना का वर्णन किया गया है। उनमें से दश की दीक्षा पर्याय १२-१२ वर्ष की और अवशेष आठ की १६-१६ वर्ष की बताई गई है। ये सभी राजकुमार श्रमण बनकर गुणरत्न संवत्सर जैसे उग्र तप की आराधना करते हैं और सभी एक मास की संलेखना कर मुक्ति को वरण करते हैं।
तृतीय वर्ग के १३ और चतुर्थ वर्ग के १० अध्ययनों में वासुदेव श्रीकृष्ण, बलदेव और समुद्रविजय के पुत्रों का उल्लेख है। ये सभी अर्हत् अरिष्टनेमि के पावन प्रवचन को श्रवण कर श्रमण बनते हैं और उग्र तप कर कर्मों को नष्ट कर सिद्ध होते हैं। इनमें श्रीकृष्ण का लघुभ्राता गजसुकुमाल तो एक ही दिन की साधना कर एक अन्तर्मुहूर्त में ही कर्मों को नष्ट कर मुक्त हुआ था। गजसुकुमाल का व्यक्तित्व बड़ा ही अद्भुत है। आज भी भूले-भटके साधकों के लिए उसकी जीवन गाथा प्रकाशस्तम्भ के समान प्रेरणादायी है।
पंचम वर्ग में श्रीकृष्ण ने द्वारिका विनाश के सम्बन्ध में अर्हत् अरिष्टनेमि से जिज्ञासा प्रस्तुत की। भगवान ने मदिरा, अग्नि और द्वीपायन ऋषि के क्रोध के कारण द्वारिका का विनाश बताया और कहा कि जिस समय द्वारिका भस्म होगी उस समय तुम माता-पिता और स्वजनों से रहित होकर
१ ततो बाचनान्तरापेक्षाणीमानीति सम्भावयामः ।
-स्थानांगवृत्ति, पत्र ४५३