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________________ नामकरण ८. अन्तकृद्दशासूत्र प्रस्तुत आगम द्वादशांगी का आठवाँ अंग है। इसमें जन्म, मरण की परम्परा का अन्त करने वाले व्यक्तियों का वर्णन है और इसके दश अध्ययन हैं। अत: इसका नाम अन्तकृद्दशा है। समवायांग में इस आगम के दश अध्ययन और सात वर्ग कहे हैं ।" नन्दीसूत्र में आठ वर्गों का उल्लेख है किन्तु दश अध्ययनों का उल्लेख नहीं है ।" आचार्य अभयदेव ने समवायांग वृत्ति में दोनों आगमों के कथन में सामंजस्य बिठाने का प्रयास करते हुए लिखा है कि प्रथम वर्ग में दश अध्ययन हैं। इस दृष्टि से समवायांग सूत्र में दश अध्ययन और अन्य वर्गों की दृष्टि से सात वर्ग कहे हैं। नन्दी सूत्र में अध्ययनों का उल्लेख नहीं किया है, केवल आठ वर्ग बतलाये हैं । परन्तु इस सामंजस्य का अन्त तक निर्वाह किस प्रकार हो सकता है ? क्योंकि समवायांग में अन्तकृद्दशा के शिक्षाकाल ( उद्देशनकाल) दश कहे गये हैं। जबकि नन्दीसूत्र में उनकी संख्या आठ बताई गई है। समवायांग की वृत्ति में आचार्य अभयदेव ने लिखा है कि उद्देशनकालों के अन्तर का अभिप्राय हमें ज्ञात नहीं है । * आचार्य जिनदासगणी महत्तर ने नंदीचूर्ण में और आचार्य हरि - समवायांग प्रकीर्णक, समवाय सूत्र ९६ -बीसूत्रप १ दस अज्मयणा सत्त वग्गा । २ अट्ठ वग्गा ३ दस अयण ति प्रथमवर्गापेक्षयैव घटन्ते, नन्द्यां तथैव व्याख्यातत्वात् पच्चेह पठ्यते 'सत्त वग्ग' त्ति तत् प्रथमवर्गादित्यवर्गापेक्षया, यतोऽप्यष्ट वर्गाः, नन्द्यामपि तथा पठितस्वात् । - समवायांगवृत्ति, पत्र ११२ ४ ततो भणितं अट्ठ उद्देणकाला इत्यादि, इह च दश उद्देशनकाला अधीयन्ते इति नास्याभिप्रायमवगच्छामः । - समवायांगवृत्ति, पत्र ११२ ५ पढमवग्गे दश अज्झयण त्ति तस्सक्खतो अंतगडद ति । - नवीसूत्र चूर्णिसहित, पृ० ६८
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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