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________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १५६ को चोट पहुँचाई, अतः तुम अपनी भूल का प्रायश्चित करो। उसने प्रायश्चित किया और अन्त में संलेखना-संथारा के साथ समाधि-मृत्यू प्राप्त कर स्वर्ग प्राप्त किया। नवें अध्ययन में नन्दिनीपिता और दसवें अध्ययन में सालिहीपिता नामक दो श्रावकों का वर्णन है जो पडिमाधारी जीवन व्यतीत कर अन्त समय में अनशन कर प्रथम स्वर्ग में महधिक देव बने। इस प्रकार हम देखते हैं कि सभी श्रावक व्रतों को ग्रहण करते हैं। व्रतों की यह सूची धार्मिक व नैतिक जीवन की प्रशस्त आचार-संहिता है। इसकी आज भी उतनी ही उपयोगिता है जितनी पच्चीस सौ वर्ष पहले थी। मानव स्वभाव की दुर्बलता जब तक बनी रहेगी तब तक इसकी उपयोगिता समाप्त नहीं हो सकती। श्रमण के आचारधर्म का निरूपण अनेक आगमों में है, किन्तु गृहस्थ का आचारधर्म मुख्य रूप से प्रस्तुत आगम में ही मिलता है। भगवान महावीर उपासकों की साधना पर इतना ध्यान रखते थे, उन्हें समय-समय पर प्रोत्साहित करते थे और विचलित होने पर सावचेत भी करते थे। ___ जयधवला में लिखा है कि प्रस्तुत आगम उपासकों के ११ प्रकार के धर्म का वर्णन करता है। वे अंग ये हैं-दर्शन, व्रत, सामायिक, पौषधोपवास, सचित्तविरति, रात्रिभोजनविरति, ब्रह्मचर्य, आरंभविरति, परिग्रहविरति, अनुमतिविरति और उद्दिष्टविरति ।। आनंद आदि श्रमणोपासकों ने ११ प्रतिमाओं का आराधन किया था जिसके सम्बन्ध में हम पहले प्रकाश डाल चुके हैं। व्रत और प्रतिमा ये दोनों साधना की पद्धतियाँ थीं, व्रतों के साथ में भी आराधना की जाती थी और स्वतंत्र भी। जयधवला में केवल प्रतिमाओं का उल्लेख है, तो समवायांग और नन्दी में व्रत और प्रतिमा का दोनों का उल्लेख है। उपसंहार विद्यमान अन्य अंग-सूत्रों में श्रमण-श्रमणियों का आचार-निरूपण ही दिखाई देता है किन्तु प्रस्तुत अंग की विशेषता है 'श्रावकधर्म' का १ (क) कषायपाहुड, मा० १, पृ० १२६-१३० (ख) अंगसुत्ताणि, भा० ३
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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