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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
संलेखना आत्महत्या नहीं
आनंद श्रवक ने अपश्चिम-मारणान्तिक संलेखना की। संलेखना का अर्थ है मृत्यु के समय अपने भूतकाल के समस्त कृत्यों की सम्यक् आलोचना कर शरीर और कषाय आदि को कृश करने हेतु की जाने वाली अन्तिम तपस्या। संलेखनायुक्त होने वाली मृत्यु को समाधिमरण या पंडितमरण कहा गया है। यह मृत्यु प्रसन्नतापूर्वक व विवेकयुक्त होती है। संलेखना या संथारा आत्मघात नहीं है । आत्मघात क्रोधादि कषाय से प्रेरित होता है, जबकि संलेखना में कषाय का अभाव होता है। आत्महत्या मानव तब करता है जब किसी कामना की पूर्ति न हो, तीव्र वेदना या मार्मिक आघात हो । किन्तु संलेखना में यह बात नहीं है। इस व्रत के पांच अतिचार हैं
(१) इहलोकाशंसा प्रयोग-धन, परिवार आदि इस लोक संबंधी किसी वस्तु की आकांक्षा करना।
(२) परलोकाशंसा प्रयोग-स्वर्ग सुख आदि परलोक से सम्बन्ध रखने वाली किसी बात की आकांक्षा करना।
(३) जीविताशंसा प्रयोग-जीवित रहने की आकांक्षा करना।
(४) मरणाशंसा प्रयोग-कष्टों से घबराकर शीघ्र मरने की आकांक्षा करना।
(५) कामभोगाशंसा प्रयोग--अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के रूप में कामभोगों की आकांक्षा करना।
इस प्रकार आनन्द श्रमणोपासक समाधिपूर्वक आनंद से देह त्यागकर प्रथम स्वर्ग के अधिकारी बने। कामदेव आदि अन्य श्रावक
दूसरे अध्ययन में कामदेव श्रावक का वर्णन है। अपार समृद्धि के बीच भी वह बड़ा त्याग व तप प्रधान जीवन जीता था। उसने भी श्रावक धर्म स्वीकार किया था और अन्तिम समय में निवृत्त होकर पौषधशाला में अपना पवित्र जीवन बिताने लगा था।
एक बार वह पौषध करके धर्मजागरण कर रहा था कि मध्यरत्रि में एक मायावी देव भयानक पिशाच का रूप धारण कर हाथ में नंगी तलवार लेकर आया और बोला--कामदेव ! तू मोक्ष की मृगतृष्णा में अपने जीवन को बर्बाद कर रहा है। मेरे कहने से धर्म को छोड़, भोग-उपभोग का आनंद लूट ।