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________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १५५ गणधर गौतम-हाँ, आनन्द ! हो सकता है। आनन्द-भगवन् ! मुझे अवधिज्ञान हुआ है, जिसके कारण मैं पूर्व, पश्चिम और दक्षिण दिशा में लवण समुद्र के भीतर पाँचसौ योजन तक, उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवंत पर्वत तक, ऊर्ध्व-लोक में सौधर्मकल्प तक और अधोदिशा में लोलुच्चुय नामक नरकावास (रत्नप्रभा का) तक देख रहा हूँ। गौतम ने कहा-आनन्द ! श्रमणोपासक को अवधिज्ञान तो होता है किन्तु वह इतना दूरग्राही नहीं होता, जैसा कि तुम बता रहे हो। तुम्हारा प्रस्तुत कथन भ्रान्त प्रतीत होता है। एतदर्थ तुम्हें अपने मिथ्या कथन का आलोचनापूर्वक प्रायश्चित लेना चाहिए। ___आनन्द ने विनयपूर्वक किन्तु दृढ़ता के साथ निवेदन किया--भगवन् ! क्या निर्ग्रन्थ शासन में सत्य के लिए भी प्रायश्चित का विधान है ? गौतम ने साश्चर्य कहा-ऐसा तो नहीं है, पर तुम्हारे कहने का तात्पर्य क्या है ? आनन्द-भगवन् ! मैंने जो कुछ भी निवेदन किया है, वह यथार्थ है, सत्य है किन्तु आपश्री उसे मिथ्या बता रहे हैं अत: यह प्रायश्चित मुझे नहीं, आपको करना चाहिए। आनन्द के कहने में दृढ़ता थी, जिससे गणधर गौतम का मन संशयग्रस्त हो गया। वे वहाँ से सीधे ही दुतिपलास चैत्य में आये और उन्होंने भगवान को बन्दन कर आनन्द के साथ जो वार्तालाप हुआ था वह निवेदन किया। भगवान ने कहा-गौतम ! श्रमणोपासक आनन्द ने जो कहा वह सत्य है। तुमने उसके सत्य कथन को असत्य कहा, अतः तुम शीघ्र ही आनन्द के पास जाओ। उससे क्षमा याचना करो और अपने भ्रान्त-कथन के लिए प्रायश्चित करो। इन्द्रभूति गौतम उलटे पाँवों आनन्द श्रमणोपासक के सनिकट आये और बोले-आनन्द ! मैंने तुम्हारे सत्य कथन की अवहेलना की थी अत: मैं तुम्हें खमाता हूँ। तम्हारा कहना सत्य था, मेरी ही धारणा भ्रान्त थी। ___ श्रमणसंघ के श्रेष्ठतम श्रमण भगवान महावीर के प्रधान अन्तेवासी इन्द्रभूति गौतम द्वारा सरलतापूर्वक क्षमायाचना किये जाने पर आनन्द गाथापति का हृदय गद्गद हो गया। भगवान के शासन में सत्य के प्रति कितनी गहरी आस्था है यह जानकर उनका हृदय प्रसन्नता से झम उठा।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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