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१५४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
(११) श्रमणभूत प्रतिमा-इस प्रतिमा में श्रावक श्रमण तो नहीं, पर श्रमणभूत यानी मुनि के समान होता है। श्रमण के सदृश ही वेष बनाकर और श्रमण के योग्य भाण्डोपकरण धारण करके विचरण करता है। यदि शक्ति हो तो वह लुंचन करता है अन्यथा उस्तरे से शिरोमुंडन कराता है। श्रमण के समान ही निर्दोष भिक्षा ग्रहण करके जीवन यात्रा चलाता है। इस प्रतिमा का कालमान जघन्य एक रात्रि अर्थात् एक दिन-रात और उत्कृष्ट ग्यारह मास होता है।
__ आनन्द ध्यान, स्वाध्याय, चिन्तन व तपश्चरण के द्वारा श्रावक प्रतिमाओं की सफल आराधना करता है । इस दीर्घकालीन तपश्चर्या से उसका शरीर सूख गया, शक्ति और बल क्षीण हो गया तथा देह अस्थि-पंजर मात्र रह गया तथापि उसकी धर्म-चेतना जागृत थी। आत्म-बल प्रदीप्त था। धर्म-जागरण करते हुए आनन्द ने सोचा-अब मेरा शरीर अस्थि-पंजर मात्र रह गया है। रक्त-मांस सूख गये हैं तथापि अभी तक मुझ में उत्थान कर्म, बल, वीर्य, पुरुषाकार पराक्रम, श्रद्धा, धृति और संयोग है, एतदर्थ प्रातः होते ही मुझे शेष जीवन के लिए भक्त-पान का त्याग करके संलेखनासंथारा पूर्वक मृत्यु की कामना न करते हुए धर्म जागृति के साथ विचरण करना श्रेयस्कर है।
धार्मिक साधना एवं पवित्र संकल्पों से आनन्द की भावना विशुद्ध हो रही थी, उसकी लेश्याएँ निर्मल और अध्यवसाय विशुद्धतर होते चले जा रहे थे। उससे उसे अवधिज्ञान नामक विशिष्ट ज्ञान की उपलब्धि हुई। उस अवधिज्ञान के दिव्य प्रभाव से वह छहों दिशाओं में दूर-दूर तक के पदार्थ देखने-जानने लगा। गणधर गौतम की क्षमा याचना
उस समय श्रमण भगवान महावीर अपने शिष्य समुदाय सहित वाणिज्यग्राम में पधारे । भगवान के प्रमुख शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम भिक्षा के लिए नगर में गये। वहाँ पर लोगों से आनन्द गाथापति के संथारे की चर्चा सुनी। अतः इन्द्रभूति गौतम आनन्द से मिलने के लिए ज्ञातकुल की पौषधशाला की ओर प्रस्थित हुए। आनन्द अपनी साधना में संलग्न थे। इन्द्रभूति गौतम को देखकर उनका मुखकमल खिल उठा। वन्दन कर उन्होंने पूछा-भगवन् ! क्या गृहस्थ को अवधिज्ञान हो सकता है ?