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१५२ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा दूर करने का प्रयास करना अनुकम्पादान है और साधु-साध्वी को देना सुपात्र दान है । गृहस्थ का द्वार जनसेवा के लिए सदा खुला रहता है। वह सन्त की भी सेवा करता है और अन्य अतिथि की भी। ग्रहस्थ के द्वार से यदि कोई हताश व निराश लौटता है तो समर्थ गृहस्थ के लिए पाप है। प्रस्तुत व्रत में इस पाप से बचने के लिए निर्देश किया है।
आनंद श्रमणोपासक ने पूर्वोक्त व्रतों को ग्रहण करने के पश्चात् एक अभिग्रह ग्रहण किया कि आज से मैं इतर तीथिकों को, उनके देवताओं को, उनके स्वीकृत देव-चैत्यों को नमस्कार नहीं करूंगा। उनके द्वारा वार्ता का आरम्भ न होने पर उनसे वार्तालाप करना, पुन:-पुनः वार्तालाप करना, गुरुबुद्धि से उन्हें आहारादि देना मुझे नहीं कल्पता । प्रस्तुत अभिग्रह में उसने छह अपवाद रक्खे ।
___ आनन्द की प्रेरणा से उसकी धर्मपत्नी शिवानन्दा ने भी भगवान के समक्ष यही द्वादश व्रत ग्रहण किये। वह श्रावक धर्म ग्रहण करने के चौदह वर्ष पश्चात् अपने ज्येष्ठ पुत्र को उत्तराधिकारी घोषित कर पौषधशाला में जाकर सम्पूर्ण समय धार्मिक क्रियाओं में व्यतीत करता है। यह प्रतिज्ञा विशेष, व्रत विशेष, तप विशेष प्रतिमा के नाम से पहचाना जाता है । वे प्रतिमाएँ ग्यारह हैं। ग्यारह प्रतिमाएँ
(१) दर्शन प्रतिमा-किसी भी प्रकार का राज्याभियोग आदि आगार न रखकर शुद्ध निरतिचार, विधिपूर्वक सम्यग्दर्शन का पालन करना। यह प्रतिमा व्रत रहित दार्शनिक श्रावक की होती है इसमें मिथ्यात्वरूप कदाग्रह का त्याग मुख्यरूप से किया जाता है। इस प्रतिमा का आराधन एक मास तक किया जाता है।
(२) व्रत प्रतिमा-व्रती श्रावक सम्यक्त्व लाभ के पश्चात् व्रतों की साधना करता है। पाँच अणुव्रत आदि व्रतों को सम्यक् प्रकार से निभाता है किन्तु सामायिक का वह सम्यक रूप से पालन नहीं कर पाता। यह प्रतिमा दो मास की होती है।
(३) सामायिक प्रतिमा-इस प्रतिमा में प्रात: व संध्या समय श्रावक सामायिक व्रत की साधना निरतिचार रूप से करता है पर पर्वदिनों में पौषधव्रत का सम्यक् पालन नहीं कर पाता। यह प्रतिमा तीन मास की होती है।