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________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १५१ (२) अप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित शय्या संस्तारक - पौषध योग्य शैया आदि का सम्यक् प्रमार्जन न करना । भूमि - मल-मूत्र त्यागने के स्थान का निरीक्षण न करना । (४) अप्रमार्जित - दुष्प्रमार्जित उच्चार प्रलवण भूमि - मल-मूत्र की भूमि को साफ किये बिना उपयोग करना । (३) अप्रतिलेखित दुष्प्रतिलेखित उच्चार-प्रस्रवण (५) पौषघोपवास - सम्यगननुपालनता - पौषघोपवास का सम्यक् प्रकार से पालन न करना । प्रथम चार अतिचारों में अनिरीक्षण निरीक्षण अथवा अप्रमार्जन या दुष्प्रमार्जन के कारण हिंसा दोष की संभावना रहती है। (१२) अतिथिसंविभाग व्रत • अतिथि के लिए अपने निमित्त बनाई हुई, अपने अधिकार की वस्तु का समुचित विभाग करना अतिथि संविभाग है। जिसके आने-जाने की कोई तिथि निश्चित न हो वह अतिथि है। आध्यात्मिक साधना हेतु जो श्रमण बने हैं उन्हें न्यायोपार्जित निर्दोष वस्तुओं का भक्ति भावना से दान देना अतिथि संविभाग है । जैसे निर्ग्रन्थ अतिथि को दान देना श्रमणोपासक का कर्तव्य है वैसे ही दीन-दुखियों को यथोचित सहकार देना भी श्रावक का कर्त्तव्य है । अतिथि संविभागव्रत के पाँच अतिचार हैं (१) सचित्त निक्षेप - अचित्त आहार आदि को सचित्त वस्तु में डालकर रखना । (२) सचित्तविधान-सचित्त वस्तु से ढककर रखना । (३) कालातिक्रम --समय पर दान न देना, असमय में दान के लिए कहना । (४) परव्यपदेश - दान न देने की भावना से अपनी वस्तु को पराई बता देना, अथवा पराई वस्तु देकर अपनी वस्तु बता देना । (५) मात्सर्य - ईर्ष्या व अहंकार की भावना से दान देना । जैन साहित्य में अनुकम्पादान और सुपात्रदान ये दान के दो रूप बताये गये हैं । अनुकम्पा सम्यक्त्व का लक्षण है। कष्ट से पीड़ित प्राणी को देखकर उसके प्रति करुणा व सहानुभूति प्रकट करना और यथाशक्ति उसके दुःख को
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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