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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
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(१०) देशावकाशिक व्रत
छठे व्रत में जीवन भर के लिए दिशाओं की मर्यादा की थी। उस परिमाण में कुछ घंटों के लिए या कुछ दिनों के लिए विशेष मर्यादा निश्चित करना अर्थात् उसको संक्षिप्त करना देशावकाशिक व्रत है । देशावकाशिक व्रत में देश और अवकाश ये दो शब्द हैं जिनका अर्थ है स्थान विशेष । क्षेत्रमर्यादा को संकुचित करने के साथ ही उपलक्षण से उपभोग-परिभोग रूप अन्य मर्यादाओं को भी सीमित करना इस व्रत में गर्भित है। साधक निश्चित काल के लिए जो मर्यादा करता है उसके बाहर किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति नहीं करता । दैनिक जीवन को वह इस व्रत से अधिकाधिक मर्यादित करता है | श्रावक के लिए सचित्त द्रव्य, विगय, उपानह आदि १४ नियमों का भी विधान है। इस व्रत के पाँच अतिचार हैं-
(१) आनयनप्रयोग मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तु मँगाना । (२) प्रेष्यप्रयोग - मर्यादित क्षेत्र से बाहर किसी वस्तु को भेजना। (३) शब्दानुपात - जिस क्षेत्र-भाग में स्वयं न जाने का नियम ग्रहण किया हो वहाँ पर शब्द संकेत से अपना कार्य करना ।
(४) रूपानुपात - मर्यादित क्षेत्र के बाहर कोई वस्तु, संकेत आदि भेजकर अथवा अपना चेहरा दिखाकर उसी के सहारे काम करना ।
(५) पुद्गलप्रक्षेप-मर्यादित क्षेत्र से बाहर कंकर, पत्थर आदि फेंककर किसी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करना ।
(११) पौषधोपवास व्रत
पौषध को अन्यत्र 'उपवास' शब्द से भी कहा गया है। इसका अर्थ है धर्माचार्य के समीप या धर्मस्थान में रहना । धर्मस्थान में निवास करते हुए उपवास करना पौषधोपवास है। दूसरा अर्थ है पोषना - तृप्त करना । जैसे भोजन से शरीर को तृप्त करते हैं वैसे ही इस व्रत से शरीर को भूखा रखकर आत्मा को तृप्त किया जाता है। आत्मचिंतन -- मनोमंथन कर आत्मभाव में रमण करना पौषधव्रत है । आठ पहर तक उपासक श्रमणवत् साधना करता है। आहार परित्याग के साथ ही वह शारीरिक श्रृङ्गार, अब्रह्मचर्य, व्यापार व हिंसक क्रिया का भी त्याग करता है । पोषध व्रत के पाँच अतिचार इस प्रकार हैं
(१) अप्रति लेखित - दुष्प्रतिलेखित शय्या संस्तारक - पौषध योग्य स्थान आदि का भली प्रकार निरीक्षण न करना ।