SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 178
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १४६ (१) कन्दर्प-विकारवर्धक वचन बोलना या सूनना या वैसी चेष्टाएं करना। (२) कौत्कुच्य-भांडों के समान हाथ-पैर मटकाना, नाक, मुंह और आँख आदि से विकृत चेष्टाएँ करना। (३) मौखर्य-वाचाल बनना, बढ़ा-चढ़ाकर बातें करना और अपनी शेखी बघारना। (४) संयुक्ताधिकरण ----बिना आवश्यकता के हिंसक हथियारों एवं घातक साधनों को संग्रह करके रखना। (५) उपभोगपरिभोगातिरेक-मकान, कपड़े, फर्नीचर आदि उपभोग और परिभोग की सामग्री का आवश्यकता से अधिक संग्रह करना। शिक्षा का अर्थ-अभ्यास है। जैसे विद्यार्थी पुन: पुन: अभ्यास करता है वैसे ही श्रावक को पुन:-पुनः जिन व्रतों का अभ्यास करना चाहिये उन व्रतों को शिक्षाव्रत कहा है। अणुव्रत और गुणव्रत जीवन में एक ही बार ग्रहण किये जाते हैं किन्तु शिक्षाव्रत बार-बार । ये कुछ समय के लिए होते हैं। सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास और अतिथिसंविभाग-ये चार शिक्षाव्रत हैं। (९) सामायिक व्रत ____ 'सम' और 'आय' शब्द से समाय शब्द बनता है अर्थात् समता का लाभ । जिस क्रिया विशेष से समभाव की प्राप्ति होती है वह सामायिक है। सामायिक में सावद्य-योग का त्याग होता है और निरवद्य योग-पापरहित प्रवृत्ति का आचरण होता है। समभाव का आचरण करने से संपूर्ण जीवन समतामय हो जाता है। इस व्रत के पांच अतिचार इस प्रकार हैं--- (१) मनोदुष्प्रणिधान-मन में बुरे विचार आना। (२) वचनदुष्प्रणिधान-वचन का दुरुपयोग, कठोर व असत्य भाषण। ... (३) कायदुष्प्रणिधान-शरीर से सावद्य प्रवृत्ति करना। (४) स्मृत्यकरण-सामायिक की स्मृति न रखना, ठीक समय पर न करना। (५) अनवस्थितता-सामायिक को अस्थिरता से या शीघ्रता से करना, निश्चित विधि के अनुसार न करना।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy