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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १४५ (५) स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत
मानव की इच्छा आकाश के समान अनंत है । इसी इच्छा की मर्यादा करना-इच्छा परिमाण अथवा परिग्रह परिमाण व्रत कहलाता है। इस व्रत का महत्त्व अनेक दृष्टियों से है। इस विश्व में स्वर्ण, चाँदी, हीरे, पन्ने, माणिक्य, मोती, भूमि, अन्न, वस्त्रादि जितने भी पदार्थ हैं वे परिमित हैं अत: संग्रह करने पर विषमता की विभीषिका भड़क उठती है। यह व्रत उन विभीषिकाओं को शान्त करता है। इससे जीवन में शान्ति का सागर लहराने लगता है। वह समस्त परिग्रह नौ विभागों में विभक्त किया गया है ----
(१) क्षेत्र-उपजाऊ भूमि की मर्यादा।। (२) वास्तु-मकान, दुकान, गोदाम आदि। (३) हिरण्य-चाँदी के बर्तन, आभूषण व अन्य उपकरण। (४) सुवर्ण-सोना, सोने के बर्तन, आभूषण व अन्य उपकरण आदि। (५) धन-रुपये, पैसे, सिक्के, नोट आदि ।
(६) धान्य-अन्न, गेहूँ, चावल, उड़द, मूंग, तिल, अलसी, मटर आदि ।
(७) द्विपद-दो पाँव वाले प्राणी, जैसे-स्त्री, पूरुष, तोता, मैना, कबूतर, मयूर आदि।
(4) चतुष्पद-चार पैर वाले प्राणी, जैसे-गाय, बैल, भैंस, हाथी, घोड़ा, भेड़, बकरी आदि।
(8) कुप्य या गोप्य-सोने-चांदी की वस्तुओं के अतिरिक्त अन्य समस्त वस्तुओं का समावेश कुप्य में होता है। गाड़ी, मोटर, साइकिल, ताँगा, रथ, ट्रक आदि वाहन व फर्नीचर आदि। गोप्य धन का अर्थ है---हीरे, माणिक, मोती आदि रखना।
परिग्रह परिमाण व्रत के पाँच अतिचार हैं :(१) क्षेत्र-वास्तु परिमाणातिक्रम । (२) हिरण्य-सुवर्ण परिमाणातिक्रम। (३) द्विपद-चतुष्पद परिमाणातिक्रम । (४) धन-धान्य परिमाणातिक्रग । (५) कुप्य-गोप्य परिमाणातिक्रम।