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१४६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
अणुव्रतों के विकास के लिए गुणवत का विधान किया गया है। दिशा-परिमाण व्रत, उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत और अनर्थदंडविरमण व्रत । इन्हें गुणवत इसीलिए कहा है कि ये अणुव्रत रूपी मूलगुणों की रक्षा व विकास करते हैं। (६) दिशा-परिमाण व्रत
इस व्रत में दिशाओं में प्रवृत्ति को सीमित किया जाता है। श्रावक यह प्रतिज्ञा करता है कि चारों दिशाओं में तथा ऊपर व नीचे निश्चित सीमा से आगे बढ़कर मैं किंचित् मात्र भी स्वार्थमूलक प्रवृत्ति नहीं करूंगा। वर्तमान युग में इस व्रत का माहात्म्य अधिक है। प्रत्येक राष्ट्र अपनी-अपनी राजनैतिक एवं आर्थिक सीमाएँ निश्चित कर ले तो बहुत से संघर्ष स्वत: मिट जायेंगे । इस व्रत के पाँच अतिचार हैं
(१) ऊर्ध्वदिशा में मर्यादा का अतिक्रमण । (२) अघोदिशा में मर्यादा का अतिक्रमण ।
(३) तिरछी दिशा--पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा--में मर्यादा का अतिक्रमण ।
(४) क्षेत्रवृद्धि-असावधानी या भूल से मर्यादा के क्षेत्र को बढ़ा लेना । एक दिशा के परिमाण का भाग दूसरी दिशा के परिमाण में मिला देना।
(५) विस्मृति-मर्यादा का स्मरण न रखना। (७) उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत .. जो वस्तु एक बार उपयोग में आती है उसे उपभोग और पुनः पुनः काम में आने वाली वस्तु को परिभोग कहते हैं। इस व्रत में उपभोग और परिभोग में आने वाली वस्तुओं की मर्यादा की जाती है। यह व्रत अहिंसा और संतोष की रक्षा के लिए है। इससे जीवन में सादगी और सरलता का संचार होता है । महारंभ, महापरिग्रह और महातृष्णा से श्रावक मुक्त होता है । आगम साहित्य में उपभोग-परिभोग सम्बन्धी २६ वस्तुओं के नाम बताये हैं। इस व्रत के पांच अतिचार हैं
(१) सचित्ताहार-जिस सचित्त वस्तु का त्याग किया है उसका प्रमादपूर्वक आहार करना।
(२) सचित प्रतिबद्धाहार-जिस सचित्त वस्तु का त्याग किया है