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________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १४१ श्रमण की सर्वहिंसा की विरति की तुलना में श्रावक की अहिंसा देशव्रत है। वह हिंसा का पूर्णत्यागी नहीं होता, केवल त्रस प्राणियों की हिंसा से विरत होता है। उसकी यह विरति तीन योग व दो करण पूर्वक होती है। बह निरपराध प्राणियों को मन, वचन व काया से न स्वयं मारता है और न दूसरों से मरवाता है। परिस्थिति विशेष में स्थूल हिंसा का समर्थन कर सकता है। श्रावक ऐसी कोई भी प्रवृत्ति कर सकता है जिसमें स्थूल हिंसा की संभावना न हों। ऐसी प्रवृत्ति दूसरों से भी करवा सकता है। ऐसा करने से उसका व्रत भंग नहीं होता। वह जो भी कार्य करता है व करवाता है उसमें वह पूर्ण सावधानी रखता है कि किसी को कष्ट न हो, किसी की हिंसा न हो, किसी के प्रति अन्याय न हो, विवेकपूर्वक पूर्ण सावधानी रखने पर भी किसी की हिंसा हो जाय तो श्रावक के अहिंसा व्रत का भंग नहीं होता। कर्तव्याकर्तव्य का ध्यान न रखना, न्याय-अन्याय का विवेक न रखना, स्पष्ट रूप से हिंसा को प्रोत्साहन देना है। अहिंसा की सुरक्षा के लिए विचारों की निर्मलता, यथार्थता एवं दृष्टि की विराटता अपेक्षित है। श्रावक द्वारा किसी जीव की हिंसा होती है तो भी वह उसके प्रति अनुकंपित होता है किन्तु व्रत की सुरक्षा के लिए हंसते व मुस्कराते हुए प्राणोत्सर्ग करने के लिए भी सदा तत्पर रहता है। हिंसा व अन्याय के सामने वह झुकता नहीं अपितु वीरता के साथ उसका प्रतिकार करता है। निर्भयता अहिंसा के लिए आवश्यक है। हिंसा, अन्याय एवं अनाचार को कायर व्यक्ति प्रोत्साहन देता है। सावधानी रखने के बावजूद भी प्रमादवश या अज्ञानवश दोष लगने की संभावना रहती है। ऐसे दोषों को अतिचार कहा गया है। स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रत के मुख्य पाँच अतिचार हैं (१) बन्ध-किसी त्रस प्राणी को कष्टदायी बन्धन में बाँधना, उसे अपने इष्ट स्थान को जाने से रोकना या अपने अधीनस्थ व्यक्ति को निर्दिष्ट समय से अधिक रोककर उससे अधिक कार्य लेना आदि भी बन्ध के अन्तर्गत है। यह बन्धन शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक आदि अनेक प्रकार का है। (२) वध-किसी भी त्रस प्राणी को मारना वध है। अपने आश्रित व्यक्तियों को या अन्य किसी भी प्राणियों को लकड़ी, चाबुक, पत्थर आदि से मारना, उन पर अनावश्यक आर्थिक भार डालना, किसी की लाचारी का अनुचित लाभ उठाना, अनैतिक ढंग से शोषण कर उससे लाभ उठाना
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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