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१३८ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा श्रमणवेष स्वयं ने ग्रहण कर लिया और उत्कृष्ट संयम की आराधना कर सर्वार्थसिद्धि में ३३ सागर की स्थिति वाले देव बने । कुण्डरीक तीन भोगों में आसस्त होकर तीन दिन में ही मरकर सातवें नरक के मेहमान हो गये और वहाँ ३३ सागर की स्थिति प्राप्त कर अपार वेदना का अनुभव किया। इस प्रकार जो श्रमण चिरकाल पर्यन्त संयम पालन कर पथभ्रष्ट हो जाता है वह कुण्डरीक की तरह दुःख पाता है और जो अन्तिम क्षणों तक संयम का पालन करता है वह पुण्डरीक के समान स्वल्पकाल में ही सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
इस प्रकार प्रस्तुत आगम में दृष्टान्तों के माध्यम से अहिंसा, अस्वाद, श्रद्धा, इन्द्रियजय आदि आध्यात्मिक तत्त्वों का बहुत ही सरल शैली में निरूपण किया गया है। कथावस्तु के साथ वर्णन की अपनी विशेषता है, भाषा की दृष्टि से कहीं-कहीं पर कादम्बरी जैसे गद्य काव्यों की सहज स्मृति हो आती है। इन कथाओं का विश्व के विभिन्न कथाग्रन्थों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने पर बहुत से नये तथ्य उपलब्ध हो सकते हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध
द्वितीय श्रुतस्कन्ध में चमरेन्द्र, बलीन्द्र, धरणेन्द्र, पिशाचेन्द्र, महाकालेन्द्र, शक्रन्द्र, ईशानेन्द्र की अग्रमहिषियों के रूप में उत्पन्न होने वाली साध्वियों की कथाएँ दी गयी हैं। दश वर्गों में २०६ अध्ययन हैं। इनमें वर्णित अधिकांश कूमारियां भगवान पार्श्व के शासन में दीक्षित होकर उत्तर गुणों की विराधना करने के कारण देवियों के रूप में उत्पन्न हई। उन साधिकाओं के देवियों के रूप में उत्पन्न होने पर भी जो नाम उनका मानवभव में था, उन्हीं नामों से उनका परिचय दिया गया है। उपसंहार
इसमें भगवान पार्श्वकालीन जन जीवन, विभिन्न मत-मतान्तर, प्रचलित रीति-रिवाज, नौकासम्बन्धी साधन सामग्री, कारागृह पद्धति, राज्यव्यवस्था, सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों का सजीव चित्रण हुआ है।
इस प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से भी इसका विशेष महत्व है-विशेषकर सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से तत्कालीन सामाजिक दशाओं के वर्णन से उस समय की परिस्थितियों का ज्ञान आज के साधक को हो जाता है। इस प्रकार यह अंग इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं।