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________________ १३६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा कारण आकर तेतलीपुत्र को अनेक प्रकार से समझाने का प्रयत्न किया, पर वह जब न माना तब उसने राजा कनकध्वज के अन्तर्मानस के विचार परिवर्तित कर दिये और प्रजा के भी; अपमान के तीव्रदेश से वह उत्पीडित हो गया। उसने अपने स्थान पर आकर गले में फांसी डालकर मरना चाहा पर मर न सका। गरदन में बड़ी शिला बाँधकर मरने का प्रयास किया, जल में कूदकर मरना चाहा और सूखी घास के ढेर में आग लगाकर जलना चाहा पर जल न सका। इस प्रकार अनेक प्रयास करने पर भी जब वह न मर सका तो देव ने प्रतिबोध देकर उसे संयम मार्ग में प्रतिष्ठित किया। उग्न साधना कर कर्मों को नष्ट कर उसने केवलज्ञान प्राप्त किया। पंद्रहवें अध्ययन में नन्दीफल का उदाहरण है। नन्दीफल ऐसा विषैला फल था जो देखने में सुन्दर, खाने में मधुर और सूंघने में सुवासित था पर उसके खाने के बाद व्यक्ति सदा के लिए आँख मूंद लेता था-मर जाता था। उसकी छाया भी जहरीली थी। धन्ना सार्थवाह ने अपने साथ के सभी व्यक्तियों को सूचित किया कि वे ध्यान रक्खें, नन्दीवृक्ष से दूर रहें, पर उसके कथन की उपेक्षा कर जिन्होंने उसके फलों का उपभोग किया वे सदा के लिए जीवन से हाथ धो बैठे। भगवान महावीर ने कहा-'धन्य सार्थवाह के समान तीर्थकर हैं जो विषय-भोग रूपी नंदीफल से बचने का सन्देश देते हैं। पर उनकी आज्ञा की अवहेलना कर जो विषय-भोग को ग्रहण करते हैं वे जन्म-मरण को प्राप्त करते हैं। वे अपने लक्ष्य मुक्तिस्थल को प्राप्त नहीं कर पाते।' सोलहवें अध्ययन का नाम अमरकंका है। इस अध्ययन में पांडवपत्नी द्रौपदी को पद्मनाभ अपहरण कर हस्तिशीर्ष नगर से अमरकंका ले जाता है। श्रीकृष्ण पांडवों सहित वहाँ पहुँचते हैं और पद्मनाभ को पराजित कर द्रौपदी को पुन: लाते हैं। श्रीकृष्ण पांडवों के हास्य-व्यंग से अप्रसन्न हो जाते हैं और कुन्ती की प्रार्थना से समुद्र तट पर नवीन मथुरा बसाकर पांडवों को वहाँ पर रहने की अनुमति देते हैं। पांडवों की दीक्षा और मुक्तिलाभ एवं प्रस्तुत अध्ययन में द्रौपदी के पूर्वभव का भी उल्लेख है। उसने एक बार नागश्री के भव में धर्मरुचि अनगार को कड़वे तूंबे का आहारदान दिया था जिसके फलस्वरूप उसको अनेक भवों में जन्म ग्रहण करना पड़ा। इसमें कच्छल्ल नारद की करतूतों का भी परिचय दिया गया है।
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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