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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १३५ पहुँच गया। इसी प्रकार साधक भी जो अपनी साधना से विचलित नहीं होता है वह लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।
दसवें अध्ययन में चन्द्र के उदाहरण से यह प्रतिपादित किया है कि जैसे कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष का चन्द्र क्रमश: हानिवृद्धि को प्राप्त होते हैं वैसे ही चन्द्र के सदृश कर्मों की अधिकता से आत्मा की ज्योति मंद होती है और कर्मों की न्यूनता से ज्योति जगमगाने लगती है। ___ग्यारहवें अध्ययन में समुद्र के किनारे होने वाले दावद्रव नामक वृक्ष का उदाहरण देकर आराधक और विराधक का निरूपण किया है।
बारहवें अध्ययन में कलुषित जल को शुद्ध बनाने की पद्धति पर प्रकाश डाला है। संसार का कोई भी पदार्थ एकान्तरूप से शुभ या अशुभ नहीं है। संसार का प्रत्येक पदार्थ शुभ से अशुभ रूप में और अशुभ से शुभ रूप में परिवर्तित होता है। अत: एक पर राग और दूसरे पर द्वेष नहीं करना चाहिए।
तेरहवें अध्ययन में दर्दुर का उदाहरण है। उसमें बताया गया है कि नन्द मणिकार राजगृह का निवासी श्रावक था। सत्संग के अभाव में व्रतनियम की साधना करते हुए भी वह विचलित हो गया। उसने चार शालाओं के साथ एक वापिका का निर्माण करवाया। वापी के प्रति अत्यधिक ममत्व होने से आर्तध्यान में मरकर उसी बावड़ी में दर्दुर बना। भगवान महावीर के आगमन की बात सुनकर वह वन्दन को निकला। किन्तु मार्ग में घोड़े की टाप से भयंकर रूप से घायल हो गया। वहीं पर समाधि-पूर्वक अनशन कर प्राण परित्याग किये और स्वर्ग का अधिकारी बना। आसक्ति कितनी भयावह होती है यह इस कथा से प्रतिपादित किया गया है।
चौदहवें अध्ययन में तेतलीपुत्र का वर्णन है। मानव जिस समय सुख के सागर पर तैरता है उस समय उसे धर्म नहीं सुहाता पर जब वह दुःख की दावाग्नि में झुलसता है उस समय उसे धर्म क्रिया करने की सूझती है। प्रस्तुत अध्ययन में तेतलीप्रधान का जीवन जब तक सुखमय था तब तक उसने धर्म क्रिया की ओर आँख उठा करके भी नहीं देखा किन्तु पोट्रिलदेव ने जो पूर्वभव में पोटिला नामक उसकी धर्मपत्नी थी और जिसने संयम साधना करके देवगति प्राप्त की थी उसने वचनबद्ध होने के १ मिलाइये वलाहस्सजातक (१६६) के साथ । प्रस्तुत कथा दिव्यावदान में भी है