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________________ १२६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा श्रावक आदि प्रकरण बहुत ही मननीय हैं। गणित की दृष्टि से पाश्र्वापत्तीय गांगेय अनगार के प्रश्नोत्तर अत्यन्त मूल्यवान हैं। भगवान महावीर ने पंचास्तिकाय का प्रतिपादन किया। उनमें धर्मास्तिकाय, अधर्मारिकाय और आकाशास्तिकाय ये तीनों अस्तिकाय अमूर्त होने से अदृश्य हैं। जीवास्तिकाय अमूर्त होने से दृश्य नहीं है तथापि शरीर के माध्यम से प्रगट होने वाली चैतन्य क्रिया के द्वारा वह दृश्य है। पुद्गलास्तिकाय, भले ही वह परमाणु हो या स्कन्ध, मूर्त होने से दृश्य है । इस विराट विश्व में जो विविधता दृष्टिगोचर होती है वह जीव और पुद्गल के संयोग से है। प्रस्तुत आगम में जीव और पुद्गल का जितना विशद विश्लेषण किया गया है उतना प्राचीन भारतीय धर्म व दर्शन ग्रन्थों में अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। प्रस्तुत आगम से यह भी परिज्ञात होता है कि उस युग में अनेक धर्मसम्प्रदाय थे किन्तु साम्प्रदायिक कट्टरता उतनी नहीं थी। एक धर्म के मानने वाले मुनि और परिव्राजक दूसरे धर्म के मानने वाले मुनियों व परि व्राजकों के पास जाने में संकोच का अनुभव नहीं करते थे। वे एक दूसरे से तत्वचर्चा भी करते और जो कुछ उपादेय प्रतीत होता उसे मुक्तभाव से स्वीकार भी करते। इसमें ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिनसे उस युग की धार्मिक उदारता का सही परिचय प्राप्त होता है । प्रस्तुत आगम प्रत्येक अध्येता के लिए ज्ञानवर्धक, संयम व समता की भावना का प्रेरक है। भाषा व शैली प्रस्तुत आगम की भाषा प्राकृत है। उसमें शौरसेनी के प्रयोग भी कहीं-कहीं प्राप्त होते हैं किन्तु देशी शब्दों के प्रयोग यत्र-तत्र मिलते हैं । भाषा सरल व सरस है । अनेक प्रकरण कथाशैली में लिखे हुए हैं। जीवनप्रसंगों, घटनाओं और रूपकों के माध्यम से कठिन विषयों को सरल करके प्रस्तुत किया गया है। मुख्य रूप से यह आगम गद्यशैली में लिखा हुआ है। प्रतिपाद्य विषय का संकलन करने की दृष्टि से संग्रहणीय गाथाओं के रूप में पद्यभाग भी प्राप्त होता है। कहीं पर स्वतंत्र रूप से प्रश्नोत्तरों का क्रम है तो कहीं पर किसी घटना के पश्चात् प्रश्नोत्तर आये हैं । प्रस्तुत आगम में द्वादशांगी के पश्चात्वर्ती काल में रचित राजप्रश्नीय, औपपातिक, प्रश्नव्याकरण, जीवाभिगम व नन्दीसूत्र आदि के नामों का उल्लेख देखकर और उन आगमों का विषय की दृष्टि से सूचन देखकर,
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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