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अंग साहित्य : एक पर्यालोचन १२१ freपक्रम आयुष्य के प्रकारों पर प्रकाश डाला है। नरक आदि स्थानों में एक समय में कितने जीव उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार जीवों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विविध भंगों की दृष्टि से वर्णन किया गया है।
इक्कीसवें शतक में शालि, व्रीहि, गेहूँ, यव इन धान्यों के मूल में जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल और पत्र के सम्बन्ध में भी प्रश्न किये गये हैं और अन्य वनस्पतियों के सम्बन्ध में भी ।
बाईसवें शतक में ताल, तमाल, आदि वृक्षों के सम्बन्ध में एक बीज वाले, बहुत बीज वाले, गुच्छ, गुल्म, वल्लि आदि के सम्बन्ध में निरूपण है । तेईसवें शतक में बटाटा (आलू) आदि वनस्पति के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है।
चौबीसवें शतक में २४ दंडकों के उपपात, परिमाण, संहनन, ऊँचाई, संस्थान, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान-अज्ञान, योग, उपयोग, संज्ञा, कषाय, इन्द्रिय, समुद्घात, वेदना, वेद, आयुष्य, अध्यवसाय, अनुबन्ध और काय संवेध इन बीस द्वारों का विवेचन किया गया है।
पच्चीसवें शतक में लेश्या और योग का अल्पबहुत्व की दृष्टि से विचार किया गया है। उसके पश्चात् द्रव्य के जीव और अजीव दो भेदों का वर्णन है । उसके बाद संस्थान, गणिपिटक, अल्पबहुत्व, युग्म और पर्याय, कालपर्यंव, दो प्रकार के निगोद, पाँच प्रकार के निर्ग्रन्थों का और पाँच प्रकार के संयम का ३६-३६ द्वारों से वर्णन किया है। दश प्रतिसेवना, दश आलोचना के दोष, दश आलोचना योग्य व्यक्ति, दश समाचारी, दश प्रायश्चित और बारह प्रकार के तप के भेदों का विस्तृत वर्णन है। इसके पश्चात् समुच्चय भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि आदि नारक जीवों की उत्पत्ति आदि के सम्बन्ध में विचार किया गया है।
छब्बीसवें शतक में जीव के लेश्या बन्ध आदि का विचार किया है। अनन्तरोपपन्न, परम्परोपपन्न, अनन्तरावगाढ़ परम्परावगाढ़, अनन्तराहारक, परम्पराहारक, अनन्तरपर्याप्त, परम्परपर्याप्त चरम और अचरम आदि का २४ दंडक के जीवों में बन्ध कहा गया है ।
सत्ताईसवें शतक में जीवों के पापकर्म के बन्ध पर चिन्तन किया
गया है ।