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१२० जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा 'मास' भक्ष्य या अभक्ष्य, 'कुलत्थ' भक्ष्य या अभक्ष्य, इस प्रकार के अनेक प्रश्न करता है। भगवान से समाधान पाकर वह श्रावकधर्म ग्रहण करता है। .उन्नीसवें शतक में लेश्या, गर्भ, पृथ्वीकाय के जीव, अपकायादि के साधारण शरीर, स्थावर जीवों की अवगाहना, सूक्ष्मता, बादरता, विशालता बताते हुए चक्रवर्ती की दासी का दृष्टान्त देकर यह प्रतिपादन किया है कि वह २१ बार कठोर शिला पर मजबूत पत्थर से पृथ्वीकाय के पिंड को पीसती है तो कुछ जीवों का पत्थर से स्पर्श होता है, कुछ का नहीं होता, कुछ मरते हैं, कुछ नहीं मरते, इतना सूक्ष्म शरीर होता है पृथ्वीकाय के जीवों का। इसके आगे नरयिक के महाआस्रव आदि चतुष्क व चरम, परम नै रयिक के कर्म और क्रिया आदि, द्वीप-समुद्र, देव, आवास, जीव, निवृत्ति, आदि करण के भेद, देवों का आहार आदि पर चिन्तन किया गया है। ६. बीसवें शतक में विकलेन्द्रिय के एवं पंचेन्द्रिय के शरीर, लोक और अलोकाकाश, पंचास्तिकाय के अभिवचन (पर्यायवाची) आत्मपरिणत धर्म, पाप वृदयादि, इन्द्रिय, उपचय, परमाणु, स्कन्ध के वर्ण आदि का वर्णन है। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की दृष्टि से परमाणुओं का वर्णन किया गया है और आगे जीव उत्पत्ति के पूर्व आहार ग्रहण करता है या पश्चात् करता है। बंध के तीन प्रकार बताये हैं, जीव के प्रयोगबन्ध, अनन्तरबन्ध और • परम्परबन्ध और उसका विस्तार से निरूपण किया है। उसके पश्चात् कर्मभूमि, अकर्मभूमि में उत्सपिणी और अवसर्पिणीकाल के सम्बन्ध में प्रश्न करने पर पाँच भरत, पांच ऐरवत में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी दोनों काल हैं किन्तु पाँच महाविदेह क्षेत्रों में अवस्थित काल बताया है। वहाँ पर हमेशा तीर्थकर होते हैं जो चतुर्याम-धर्म का उपदेश देते हैं। भरत में २४ तीर्थंकर होते हैं, उनमें प्रथम आठ और अन्तिम आठ के अन्तरकाल में कालिकत का विच्छेद नहीं होता किन्तु मध्य के सात तीर्थंकरों के अन्तरकाल में कालिकश्रुत का विच्छेद हुआ और दृष्टिवाद का विच्छेद तो सभी जिनान्तरों में हुआ है। गौतम ने भगवान से पूछा कि आपका पूर्वगत श्रुत और तीर्थ कितने काल तक रहेगा? भगवान ने पूर्बगत श्रुत एक हजार वर्ष और तीर्थ २१ हजार वर्ष तक रहने का बताया। तीर्थ
और तीर्थंकर के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया। विद्याचारण और जंघाचारण .. मुनियों की तीव्रगति का विस्तार से निरूपण किया गया है। सोपक्रम,