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________________ अंग साहित्य : एक पर्यालोचन ११६ अठारहवें शतक में जीव प्रथम है या अप्रथम, इस पर विचार करते हुए २४ दuse और सिद्ध जीवों के सम्बन्ध में कहा गया है। पश्चात् शैलेशी आदि प्रथम हैं या अप्रथम, योग-उपयोग आदि के प्रथम अप्रथम और चरम व अचरम के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। शकेन्द्र का पूर्वभव बताते हुए कार्तिक श्रेष्ठ का प्रसंग दिया गया है। वह तीर्थंकर मुनिसुव्रत के समय हुए, उन्होंने भगवान मुनिसुव्रत के उपदेश को श्रवण कर वैराग्य भावना से उत्प्रेरित होकर एक हजार आठ श्रेष्ठियों के साथ दीक्षा ग्रहण की और उग्र तप कर अन्त में एक मास की संलेखना से आयु पूर्ण कर श ेन्द्र हुए हैं । माकंदीपुत्र स्थविरों से प्रश्न करते हैं कि क्या पृथ्वीकाय के जीव मनुष्य होकर मुक्त होंगे ? भगवान ने कहा है कि वे मुक्त हो भी सकते हैं। द्रव्य और भाव बन्ध पर चिन्तन किया गया है, और पापकर्म के भेद पर भी प्रकाश डाला है । प्राणातिपात, प्रवृत्ति-निवृत्ति और जीव, भोग, कृतादि युग्मचतुष्क, देव की सुन्दरता-असुन्दरता, महाकर्म- अल्पकर्म, विकुर्वणा सरल या ar, निश्चय और व्यवहार की दृष्टि से गीले गुड़ में कितने वर्णं, गंध, रस और स्पर्श होते हैं, भ्रमर में कितने वर्ण- गंघादि होते हैं ? परमाणु और स्कन्ध में कितने वर्णादि होते हैं आदि प्रश्नों का समाधान किया गया है । केवली भगवान यक्ष से आवेष्टित होते हैं या नहीं ? उत्तर में बताया हैनहीं होते । उपधि के कर्म, शरीर और बाह्य भंडमात्रोपकरण ये तीन प्रकार बताये हैं। इसी प्रकार परिग्रह के भी तीन प्रकार बताये हैं। मन, वचन और काया के योग को किसी पदार्थ में स्थिर करना प्रणिधान है, वह २४ दंडकों में पाया जाता है। इस पर विचार किया है। मदुक श्रावक, जो बहुत ही प्रतिभासम्पन्न था, जिसके अकाट्य तर्कों ने अन्य तीर्थों को निरुत्तर कर दिया था, उसका उल्लेख है । वैक्रिय से बनाये हुए हजारों शरीर में एक ही आत्मा होती है। देवासुर संग्राम, साधु के पाँव से यदि कुर्कुट मर जाय तो कितनी क्रियाएं लगती हैं। अन्य तीर्थिकों से गौतम का संवाद और भगवान महावीर के द्वारा गौतम की प्रशंसा । गौतम के द्वारा भगवान से यह प्रश्न कि परमाणु पुद्गल को छद्मस्थ जानता है या नहीं ? भव्य द्रव्य नैरयिक के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर, भावितात्मा अनगार की वैकिक शक्ति, वायु से परमाणु स्पृष्ट है या नहीं, मशक वायु से स्पृष्ट है या नहीं आदि की चर्चा की गई है । सोमिल ब्राह्मण भगवान के पास आता है, वह यात्रा, यापनीय, अव्याबाध, प्रासुक विहार, 'सरिसव' भक्ष्य या अभक्ष्य,
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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