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जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा
चौदहवें शतक में भावितात्मा अणगार देवलोक में उत्पन्न होते हैं । नैरयिकों की गति, आयुबन्ध, गौतम को केवलज्ञान की प्राप्ति न होने पर उदासी, भगवान का आश्वासन, अंबड परिव्राजक का वर्णन है और इसी शतक में केवली के ज्ञान का निरूपण भी किया गया है।
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पन्द्रहवें शतक में गोशालक का विस्तार से परिचय दिया गया है । गोशालक भगवान महावीर के द्वितीय वर्षावास में आता है और छह वर्ष तक भगवान के साथ एक ग्राम से दूसरे ग्राम विचरण करता है। तिल के पौधे को देखकर वह भगवान से जिज्ञासा प्रस्तुत करता है और भगवान के उत्तर को सुनकर वह नियतिवाद की ओर आकर्षित होता है। भगवान से वह तेजोलेश्या की प्राप्ति का उपाय आदि पूछता है। उसके अन्तिम जीवन का भी वर्णन यहाँ दिया गया है।
सोलहवें शतक में अधिकरण, जरा, शोक, अवग्रह, शक्रेन्द्र की भाषा, कर्म - क्रिया विचार, निर्जरा के कारण, गंगदेव, स्वप्न विचार, उपयोग, लोक, afe इन्द्र, अवधिज्ञान, द्वीपकुमार आदि का वर्णन है ।
सत्रहवें शतक में राजा उदायी के हाथी का वर्णन है। वह मरकर कहाँ जायगा इसका भी उल्लेख किया गया है । क्रियाओं पर चिन्तन करते हुए बताया है कि किन जीवों को कितनी क्रियाएँ लगती हैं। ओदयिक, क्षायोपशमिक आदि भावों का वर्णन है। धर्मी, अधर्मी और धर्माधर्मी का वर्णन करते हुए कहा है कि जिसने पूर्ण प्राणातिपात आदि पापकर्म का प्रत्याख्यान किया है वह धर्मी है, जिसने पापकर्म का प्रत्याख्यान नहीं किया है वह अधर्मी है और जिसने कुछ त्याग किया है, कुछ नहीं किया है वह है । इसी प्रकार जीव के पंडित, बाल और बालपंडित भेद किये हैं । शैलेशी प्राप्त अनगार की निष्कंपता चलने के (कम्पन के प्रकार, संवेग आदि धर्म का अन्तिम फल मोक्ष बताया है। आत्मा की स्पृष्ट क्रिया के सम्बन्ध में कहा है कि आत्मा कर्म द्वारा स्पृष्ट की जाती है । दुःख और सुख आत्मकृत हैं, परकृत है या उभयकृत है—इसका समाधान करते हुए भगवान ने कहा- दुःख आत्मकृत है, परकृत नहीं और न उभयकृत है। ईशानेन्द्र की सुधर्मसभा का वर्णन किया गया है और नरकस्थ पृथ्वीकायिक, ऊर्ध्वलोक पृथ्वीकायिक, अकाय, वायुकाय आदि जीवों के मरण समुद्घात का वर्णन है । इसी प्रकार नागकुमार, सुपर्णकुमार, विद्युतकुमार, वायुकुमार और अग्निकुमार जाति के देवों का वर्णन है ।