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११६ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा जाना और श्रमण भगवान महावीर की शरण में आकर अपने प्राणों को बचाना आदि का वर्णन है। क्रिया, विचार, अनगार वैक्रिय, लोकपाल और उनके कार्यो का उल्लेख है।
चतुर्थ शतक में ईशान लोकपाल, नैरयिक उपपात, लेश्या, पद आदि का निरूपण है।
पांचवें शतक में नारदपूत्र और निर्ग्रन्थी पुत्र का संवाद आदि है।
छठे शतक में वेदना का वर्णन है। नरक में महावेदना होने पर भी अल्पनिर्जरा होती है और कितने ही स्थानों में अल्पवेदना होने पर महानिर्जरा होती है। निर्जरा के लिए कर्दमराग और खंजनराग के वस्त्र का • उदाहरण दिया गया है । सूखे घास व अग्नि और तप्त तवे पर जलबिन्दु जैसे क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है वैसे ही श्रमण के कर्म संयम साधना व तप रूप अग्नि से नष्ट हो जाते हैं। अल्पवेदन और महानिर्जरा के उदाहरण सहित चौभंगी प्रस्तुत की गई है। मुहर्त के श्वासोच्छ्वास और कालमान का आवलिका से उत्सपिणी अवसपिणी तक वर्णन है।
सातवें शतक में आहारक, अनाहारक, कर्म की गति, प्रत्याख्यान के भेद और स्वरूप, साता-असाता के बन्ध के कारण, महाशिला कंटक और रथमूसल संग्राम का वर्णन, वरुणनाग का अभिग्रह और दिव्य देवगति आदि का वर्णन है।
आठवें शतक में पुद्गल, आशीविष, ज्ञानलब्धि, श्रमणोपासक के ४६ भांगे, श्रावक और आजीविक उपासक के साथ तुलना, तीन प्रकार के दान, आचार्य आदि के प्रत्यनीक और बन्ध आदि का वर्णन है।
नवें शतक में असोच्चा केवली, गांगेय अणगार के भांगे, ऋषभदत्त और देवानन्दा ब्राह्मणी और जमालि के बोध आदि का वर्णन है।
दसवें शतक में दिशा संवृत अधिकार, उत्तर, अन्तरद्वीप आदि का वर्णन है।
ग्यारहवें शतक में शिवराज ऋषि का उल्लेख है जो हस्तिनापुर के निवासी थे। उन्होंने दिशा-प्रोक्षक तापसों की दीक्षा ग्रहण की थी और आगे चलकर वे महावीर के शिष्य बने । सुदर्शन श्रेष्ठी ने काल के सम्बन्ध में जिज्ञासाएं प्रस्तुत की और भगवान ने उत्तर दिया। महाबल का और आलंभिका के इसीभद्र पुत्र का वर्णन है। और परिव्राजक श्रमण भगवान महा