SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 143
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ जैन आगम साहित्य : मनन और मीमांसा व्याख्याप्रज्ञप्ति के अध्ययन, शतक के नाम से विश्रुत हैं। वर्तमान में इसके १३८ शतक और १९२५ उद्देशक प्राप्त होते हैं। प्रथम ३२ शतक पूर्ण स्वतन्त्र हैं। ३३ से ३६ तक के सात शतक १२-१२ शतकों के समवाय हैं। ४०वां शतक २१ शतकों का समवाय है। ४१वां शतक स्वतंत्र है। कुल मिलाकर १३८ शतक होते हैं। इनमें ४१ मुख्य तथा शेष अवान्तर शतक हैं। शतकों का परिचय प्रथम शतक में चलन आदि दश उद्देशक हैं। प्रारम्भ में नमस्कार मंत्र, ब्राह्मी लिपि व श्रुत को नमस्कार करके मंगलाचरण किया है। प्रश्नोत्थान में भगवान महावीर और गौतम का संक्षेप में परिचय प्रदान किया गया है। उसके बाद चलित आदि नौ प्रश्न, २४ दंडक के आहार, स्थिति, श्वासोच्छ्वास, काल का विचार, आत्मारंभ आदि संवृत्त और असंवृत्त अनगार और असंयत के देवगति का कारण बताया है। यह स्मरण रखना चाहिए कि भगवान ने जीवों के छह निकाय बताये हैं। उनमें त्रस निकाय के जीव तो प्रत्यक्ष हैं। अब विज्ञान द्वारा वनस्पतिकाय में जीव प्रत्यक्ष माना जाने लगा है। किन्तु पथ्वी, पानी, अग्नि और वायु इन चार निकायों में विज्ञान द्वारा जीव स्वीकृत नहीं हुए हैं। भगवान महावीर ने पृथ्वी आदि जीवों का केवल अस्तित्व ही नहीं माना है किन्तु इनका जीवनमान, आहार, श्वास, चैतन्य-विकास, संज्ञाएँ आदि विषयों पर भी विस्तार से प्रकाश डाला है। पृथ्वीकाय के जीवों का कम से कम जीवनकाल अंतर्मुहूर्त का है और उत्कृष्ट जीवनकाल २२ हजार वर्ष का। ये जीव निश्चित क्रम से श्वास नहीं लेते। कभी एक समय में और कभी अधिक समय में इनका श्वासोच्छ्वास होता है। उनमें आहार ग्रहण करने की इच्छा होती है। ये प्रतिपल, प्रतिक्षण आहार ग्रहण करते हैं। उनमें चैतन्य को प्रगट करने वाली स्पर्श इन्द्रिय स्पष्ट है किन्तु अन्य इन्द्रियाँ नहीं।' जिस प्रकार मानव श्वास लेते समय प्राणवायु का ग्रहण करता है, वैसे ही पृथ्वीकाय के जीव श्वास लेते समय वायु के साथ ही पृथ्वी, पानी, अग्नि और वनस्पति के पुद्गल भी ग्रहण करते हैं। १ २ भगवती १३१३३२ भगवती ६।३४।२५३-२५४
SR No.091016
Book TitleJain Agam Sahitya Manan aur Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages796
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy