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हुआ कि मैं स्थानकवासी परम्परा मान्य बत्तीस आगमों का संक्षेप में परिचय लिखू । समय बहुत ही कम था, मैं उसे टालना चाहता था, पर सद्गुरुवर्य ने आदेश दिया कि तुझे इसी विषय पर लिखना है। आदेश को शिरोधार्य कर मैंने बत्तीस आगमों का सार बहुत ही संक्षेप में लिख दिया, जो चिमनभाई को अत्यधिक पसन्द आया और वह स्मृति ग्रन्थ में गुजराती भाषा में प्रकाशित भी हुआ। उसी लेखन में आवश्यक संशोधन परिमार्जन व परिवर्धन कर, आगम साहित्य के प्रकीर्णक, व्याख्या साहित्य, दिगम्बर साहित्य, एवं तुलनात्मक अध्ययन लिखकर मैंने प्रस्तुत ग्रन्थ तैयार किया है, इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ का लेखन पूना (महाराष्ट्र), रायचूर और कर्णाटक की विहार यात्रा में सम्पन्न हुआ।
- जिज्ञासुओं के अन्तर्मानस में यह प्रश्न उबुद्ध हो सकता है कि स्थानकवासी परम्परा जब बत्तीस आगमों को ही प्रमाणभूत मानती है तो अन्य श्वेताम्बर व दिगम्बर मान्य आगम साहित्य व व्याख्या साहित्य पर मैंने क्यों लिखा? उत्तर में इतना ही निवेदन है कि जरा विचारों को विराट बनायें, प्रमाण और अप्रमाण के चक्कर में पड़कर राग-द्वेष की वृद्धि कर कर्मबन्धन न करें अपितु सार तत्व ग्रहण कर समत्व की अभिवृद्धि करें। आगम साहित्य किसी व्यक्ति या सम्प्रदाय की धरोहर नहीं है अपितु श्रमण भगवान महावीर की वाणी का प्रतिनिधित्व करने वाला संकलन-आकलन है जिसे उनके उत्तराधिकारियों ने पल्लवित और प्रणीत किया है। बत्तीस आगमों के गहन रहस्यों को समझने के लिए उनका अध्ययन-चिन्तन बहुत ही आवश्यक है।
प्रत्येक आगम पर और उसके व्याख्या साहित्य पर मैं बहुत ही विस्तार से लिखना चाहता था, पर ग्रन्थ अत्यधिक बड़ा न हो जाये एतदर्थ संक्षेप में लिखा है। तुलनात्मक अध्ययन को भी मैं विस्तार से लिखना चाहता था और वह आवश्यक भी था किन्तु लम्बी विहार यात्रा होने के कारण ग्रन्थाभाव रहा जिससे मैं अधिक विस्तार से नहीं लिख सका । मैं उन सभी ग्रन्थ व ग्रन्थकारों का हृदय से आभार मानता हूँ कि जिनका मैंने प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखन में उपयोग किया है।
मेरे हाथ में दर्द होने के कारण श्री सौभाग्य चन्द जी तुरखिया एवं धर्मानुरागिणी बहिन गुलाब एम. ए. ने ग्रन्थ को पाण्डुलिपि तैयार करने में सहयोग किया है और परमविदुषी पंजाबसिंहनी श्री केसरदेवी जी एवं अध्यात्मप्रेमी श्री कौशल्यादेवी जी की सुशिष्या प्रतिभामूर्ति बहिन विजयाश्री ने अत्यन्त श्रम से शब्दानुक्रमणिका तैयार की। श्री रमेश मुनि जी, श्री राजेन्द्रमुनिजी, श्री दिनेश मुनि जी की सतत सेवा, शुश्रूषा के कारण मैं लेखन-कार्य को शीघ्र कर सका हूँ अतः मैं उन्हें हार्दिक साधुवाद प्रदान करता हूँ। स्नेहमूर्ति श्रीचन्द जी सुराना ने प्रूफ आदि संशोधन कर एवं मुद्रण कला की दृष्टि से ग्रन्थ को सर्वाधिक सुन्दर बनाने का प्रयास किया है अतः उन्हें विस्मृत नहीं हो सकता। धर्मप्रेमी सुश्रावक भक्तप्रवर श्रीमान पारसमलजी मुथा एवं परमभक्त धर्मानुरागी श्रीमान् जवरीलालजी बलवन्तराजजी मुथा रायचूर वालों को भी भुलाया नहीं जा सकता जिनके उदार सहयोग से ही ग्रन्थ